शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

प्राचीन भारत

आज हम संचार क्रान्ति के युग में है। इस संचार क्रान्ति ने अखिल विश्व को संचार सूत्र में बांध कर उसे विश्व-ग्राम में परिवर्तित कर दिया है। फलस्वरूप पश्चिम की सभ्यता एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कपाट की अर्गला खुल गयी है। पश्चिम का सांस्कृतिक-समीर, समाचार पत्रों, संचार  उपग्रहों, इन्टरनेट एवं  सर्वोपरि-टेलीविज्ञन के माध्यम  से, हमारे समाज में एक अभिनव-संचार-सांस्कृतिक, उसमें निहित जीवन-दर्शन को ही नहीं वरन् परोक्ष  में हमारी सनातन-शाश्वत संस्कृति को प्रदूषित कर रहा है। आज मात्र ललाम वारिधारणी गंगा ही प्रदूषित नहीं है, वरन् प्रदूषित हो रही है ज्ञान-सरस्वती, प्रच्छन्न रूप में।

इस नव-प्रभाव के प्राकट्य से सैकड़ों वर्षों पूर्व हमारी संस्कृति को नष्ट करने का जो सुनियोजित षड्यंत्र इसाई-मिशनरियों द्वारा प्रारम्भ किया गया था, वही कलेवर बदल प्रगतिशील विचारकों द्वारा अनेक स्वरूप में व्यक्त हो रहा है। इस प्रकार के विचारकों के अनुसार संस्कृति शब्द तो कल्चर का अनुवाद है, क्योंकि यह शब्द न तो मोनियर-विलियम के, अथवा आप्टे के संस्कृत कोषों में है। उनके अनुसार यदि उक्त शब्द कोष रचयिता किसी कारण वश इस संस्कृति शब्द की  चर्चा नहीं करते हैं तो वह शब्द पश्चिम की प्राचीन भाषा  लैटिन के कल्चर-कल्चुरा शब्द जिसका अर्थ उपासना और कृषि दोनों होता है, से उद्भूत माना जाना चाहिए। इस प्रकार के विचारकों ने भारत की धरोहर वेदों  का अनुशीलन करना कुछ विशेष  कुण्ठाओं के कारण  उचित नहीं समझा होगा। तथ्यतः यह शब्द यजुर्वेद के निम्न मंत्र में सार्थक स्वरूप में विद्यमान है।

‘‘सा नो प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’’(यजु.7/14) ‘‘वह विश्व द्वारा वरण की गई प्रथम संस्कृति है।’’

स्मरण रचना चाहिए जब ‘‘वैदिक गणित’’ की चर्चा सर्वप्रथम भारत में की गई तो पश्चिमोपासक भारतीय चिंतकों-वैज्ञानिकों ने इस विधा को गम्भीरता से लेना उचित नहीं समझा था। उनके मानस में तो आर्केमेडिस, पैथगोरस, रेने-दर्कात, लेवाइजर, पस्कल-कोपर्निकस और न्यूटन आदि के नाम बसे थे। स्वाभाविक था उनका भारतीय-वैज्ञानिक विधा का विरोध-विशेष कर प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक पद्धति को नगण्य करने के, उनके जन्मजात अधिकार, का प्रयोग। अधिकांश लोगों के मन में यह भ्रान्तिमय अवधारणा विद्यमान है कि विज्ञान की आधार शिला इन्हीं पश्चिमी वैज्ञानिकों ने रखी थी। इस अवधारणा के पीछे, उसकी पृष्ठभूमि में सहत्रों वर्षों से भारतीय संस्कृति एवं ज्ञान-विज्ञान के अवमूल्यन का, नष्ट करने का सुनियोजित प्रयास है। आज आवश्यकता है कि इस भ्रान्तिजन्य कुचक्र की कुक्षि से तथ्यों के नवनीत को जन-सामान्य तक संप्रेषित करने के हेतु प्रयास का प्रारम्भ करना।

प्रसन्नता का विषय है कि भारतीयता में रुचि रखने वाले चितंकों  ने, इस दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। परिणाम स्वरूप प्राचीन भारत के विज्ञान से संबद्ध अनेक तथ्य स्पष्ट होकर-प्रत्यक्ष हो रहे है। परिणाम स्वरूप प्रबुद्ध जन आपिशाल, कपिल, कणाद, आपस्तंब, बौधायन, सुश्रुत, चरक भास्कराचार्य, आर्यभट्ट वराहमिहिर आदि भारतीय मनीषी वैज्ञानिक के नामों से परिचित हो रहे हैं। आशा है कि आने वाले समय में सत्य का सूर्य उद्भासित होकर भारत की उज्जवल परम्परा के प्रणेता विज्ञान वेत्ताओं के नामों से विश्व को पुनः परिचित करा देगा। भारत की विज्ञान परम्परा को दर्शाने वाले अनेक श्लोकों की भांति निम्न श्लोक अब सहज सर्वत्र स्थापित हो चुका है-

‘‘वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुस्तथा।
चरको भास्कराचार्यो वाराहमिहिरः सुधी।।’’
‘‘नागार्जुनो भारद्वाजः आर्यभट्टों बसुर्वुधः।
ध्येयों व्यंकरटाराश्च विज्ञा रामानुजादयः।।’’

वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न भारतीय परम्परा में शोध के परिणामस्वरूप विभिन्न संस्कृति ग्रंथों में, अपने कुछ परिवर्तित स्वरूप में विद्यमान है। विभिन्न वैज्ञानिक-विषयों के प्रणेताओं में महर्षि भृगु, कवि उशना (शुक्रराचार्य) भारद्वाज, इन्द्र, वशिष्ठ, अत्रि, गर्ग, शौनक, नारद, द्रोण, चाक्रायण, धुण्डीनाथ, नंदीश, कश्यप, अगस्त, दीर्घातमस आदि का नाम अग्रगण्य है। इस ऋषियों ने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, धातुकर्म, आदि अनेक क्षेत्रों में शोध किया। इस विविध विधाओं का उल्लेख भृग-संहिता के प्रारम्भ में वर्णित है-

नानाविधानां, वस्तूनां यंत्राणां कल्पसंदा,
धातूनां साधनानां च वास्तूना शिल्प संज्ञितम।
कृर्षिजलं खनि-चेति धातुखण्डम् त्रिधाभिथम्।।
नौका-रथाग्नियानानाम्, कृति साधन मुच्यते।
वेश्म प्राकार नगररचना वास्तु संज्ञितम्।।

इन शास्त्रों में कृषि, जल खननशास्त्र, नौकाशास्त्र, रथशास्त्र अग्नियानशास्त्र, वेश्मशास्त्र, प्राकारशास्त्र, नगर रचना तथा वास्तुशास्त्र प्रमुख हैं। भारतीय विज्ञान विकास गाथा का कटुपक्ष है प्राचीन संस्कृत की पुस्तकों का धर्मान्ध आक्राताओं द्वारा, मध्य युग में नष्ट कर देना। ग्रन्थागारों-यथा नालंदा, विक्रमशिला के ग्रन्थागारों को अग्नि लगा देना और उनका कई दिनों तक जलते रहना एक सर्वविदित तथ्य है। दूसरा दुखद पक्ष है इन प्राचीन पाण्डुलिपियों, ग्रंथों  की स्मंगालिंग। एक अनुमान के अनुसार पांच लाख संस्कृत पाण्डुलिपियां पश्चिमी देशों के ग्रन्थागारों और व्यक्तिगत पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। इसी कारण सामान्य भारतीय विज्ञान अध्येयता-इन ग्रंथों के अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं।

इन उपयुक्त तथ्यों की भांति महत्त्वपूर्ण है स्वतंत्रता के उपरान्त भारत सरकार द्वारा संस्कृत के पठन-पाठन को महत्त्व न देना जो, हमारी प्राचीन गौरव गाथा के क्षरण का एक प्रमुख कारण है। शून्य के महत्त्व की चर्चा करते हुए प्रो.जे.बी. हैल्सहेड ने लिखा है ‘‘शून्य का भारतीयों द्वारा आविष्कार इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसकी जितनी प्रशंसा की जाय वह कम है।’’

शून्य के उपयोग की चर्चा यद्यपि आचार्य पिंगल कृत छंदः सूत्र जो 200 ई. पूर्व की रचना है मैं प्राप्त होता है परन्तु इसके आविष्कारक, ऋग्वैदिक ऋषि गृत्समद हैं।

दशमलव पद्धति एवं 1012 परार्ध तक की संख्याओं की चर्चा महर्षि मेघातिथि करते हैं तथा कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के एक मंत्र में यह संख्या 1019 तक जा पहुँची हैं। इसे लोक के नाम से प्रकट किया गया है। महर्षि आपिशाल जो ध्वनि शास्त्र के वैदिक प्रणेता ऋषि थे, के भाँति ही महर्षि मेघातिथि के गणित सम्बन्धी अनेक मंत्र ऋग्वेद आदि में विद्यमान हैं।

वैदिक गणित में शुल्व सूत्रों का प्रमुख स्थान है। गणित इतिहासविद् डॉ.ए.के.बाग के अनुसार, सूत्र कालीन इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट होता है, कि सूत्रों की रचना के पूर्व भी गणित के अनेक ग्रंथों की रचना हो चुकी थी। परन्तु वे सब अब कालकवलिवत होकर नष्ट हो चुके हैं। सूूत्रों में विविध वैदिक यज्ञों में बनाया जाने वाली यज्ञ वे विविध वैदिक यज्ञों में बनाया जाने वाली यज्ञ वेदिकाओं की विधिवत रचना एवं समीक्षा की गई है। शुल्व सूत्रों की रचना के लिए सात सूत्रकारों के नाम प्रमुख हैं-बौधायन, आपस्तम्ब, कात्यायन, मानव, मैत्रायण, वाराह एवं हिरण्यकेशी। इन्हीं ऋषियों को वैदिक-कालीन रेखा गणित का प्रवर्तक एवं आचार्य कहा जा सकता है। ज्यामिति में जिस प्रमेय को पाइथागोरस प्रमेय कह कर हमें पढ़ाया गया है, उसे पाइथागोरस से एक हजार वर्ष पूर्व महर्षि-बोधायन ने शुल्व सूत्र में निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया है-

‘‘दीर्घ चतुरस्यस्याक्ष्णया रज्जुः पार्श्वमानी तियक्मानी च तत्पृथग्भूते कुरुतस्य दुभयं करोति।’’
‘‘अर्थात किसी आयत की भुजाओं के वर्गों का योग उसके कर्ण के योग के बराबर होता है।’’

निश्चय ही यह प्रमेय भारतीय ज्ञान के साथ सिकन्दर के जाने के उपरान्त-यूनान और भारतीयों में संपर्क के बाद, यूनान पहुँची और कालान्तर में पाइथागोरस प्रमेय के नाम से प्रचलित की गई। इसी प्रकार प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ऋषियों को नक्षत्रों का दीर्घ-वृत्तीय पथ भी ज्ञात था। जो ऋग्वेद संहिता (6000 ई.पू.) में निम्नवत् वर्णित है-

‘‘त्रिनाभिचक्रमऽजरमनंव यत्रोमा विश्वा भुवनानि तस्थुः।’’ अर्थात ‘‘जिस दीर्घ बृत्तीय पथ पर समस्त खगोलीय पिण्ड गति करते हैं वही अजर और अनर्व है।’’

इसी तथ्य की चर्चा जर्मन वैज्ञानिक जोहासन केपलर ने, योरप में 1600 ई. में कर के ख्याति प्राप्ति की थी, जो भारतीयों को सात हजार वर्ष पूर्व से ही ज्ञात थी।


जैन गणित के आचार्यों को लघुगणक प्रणाली, लागारिथम्स, आधुनिक युग में उसके प्रवर्तक नैपियर  (550-617 ई.) से चार सौ वर्ष पूर्व, ईसा का प्रारम्भिक शताब्दी में ज्ञात थी।

गणित के प्राचीन आचार्यों में आर्यभट्ट (प्रथम), वरःमिहिर (482 ई.) जिन्होंने ईरान के सम्राट नवशेरवाँ (अनुश्रण) के निमंत्रण पर राजधानी जुन्दी शाहपुर गए थे। जहाँ पर उन्होंने एक वेधशाला का निर्माण कराया था।

ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य, श्रीधराचार्य, आर्यभट्ट (द्वितीय) और भास्कराचार्य प्रमुख विज्ञानवेत्ता थे। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से पाँच सौ वर्ष पूर्व भास्कराचार्य (द्वितीय) ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की खोज की थी। यह अतीव कष्ट एवं दुख का विषय है कि क्षात्रों को उनके द्वारा प्रतिपादित-‘‘आकृष्टि शक्तिश्च महतिपायात स्वस्थं गुरु स्वमुखं स्वशक्तया-(पृथ्वी में आकर्षण की शक्ति है, इस कारण आकाश स्थित भारी वस्तुओं को वह अपनी शक्ति से आकृष्ट करती है-खींच लेती है), सिद्धांत पढ़ाया नहीं जाता है।

प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों का गणित के प्रति अगाध प्रेम वेदांग ज्योतिष के इस श्लोक में प्रतिध्वनि होता है-

‘‘यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वेदाङग शास्त्राणां गणित मूर्द्धानि स्थितम्।।’’

गणितज्ञों के अनुसार महर्षि पाणिनि के भ्राता आचार्य पिंगल रचित ‘‘छन्दः शास्त्र’’ (500 ई.पू.) में 0 तथा 1 के द्वारा द्विआधारीय संख्या पद्धति का उपयोग किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इसी पद्धति का पुनः उपयोग करके जॉर्ज बूल ने ‘बूलियन बीजगणित’ का आविष्कार किया, जिसके आधार पर कम्प्यूटर की बाइनरी तकनीक का विकास हुआ। आचार्य पाणिनि के सूत्रों में भी कुछ सुधीजनों को गणितीय तथ्य दिखते हैं। इसी प्रकार ‘लोष्ठ-प्रस्तार’ (वरःमिहिर-पंचसिद्धान्तिका) विधि की पुनः खोज जर्मन गणितज्ञ लैबनित्स द्वारा 1666 ई. में की गई थी।

धातुकर्म और रसायन विज्ञान में प्राचीन भारतीयों की निपुणता क परिचायक दिल्ली स्थित मेहरौली का लौह स्तम्भ है तथा मथ्ययुग में समस्त एशिया में चर्चित थी भारतीय तलवार-शमशीरे-हिन्द। इतना ही नहीं, वरन् रासायनिक अभिक्रिया द्वारा विधुत उत्पादन हेतु विद्युत सेल तथा बैटरी के निर्माण का श्रेय इटली के दो वैज्ञानिकों लुइगी गैलवानी एवं आलेसान्द्रों वोल्टा को दिया जाता है। इनका कार्य काल 18वीं शती का उत्तरार्ध है। परन्तु इनके काफी समय पूर्व ऋषि अगस्त की संहिता में, रासायनिक अभिक्रिया से विद्युत उत्पादत के हेतु निम्नवत विद्युत सेल का वर्णन है।

‘‘संस्थाप्य मृण्मये पात्रे तांम्रपत्रं सुसंस्कृतम।’’
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्द्रभिः काष्ठपंसुभिः।।
दस्तालोस्टी निधातव्यः परदाच्छदिदस्ततः।
संयोगगज्जायते तेजो मित्ररुण संज्ञितम्।।

अर्थात् मिट्टी के पात्र में अच्छी तरह से स्वच्छ की हुई ताम्र पट्टिका रखकर उसके ऊपर कापर सल्फेट डालो। उसके ऊपर काष्ठ का गीला बुरादा रखकर ऊपर से जिंक पारद (पारा) का मिश्रण रखो। ताम्र एवं जिंक (जस्ता) के तारों को जोड़न से विद्युत उत्पन्न होगी।

भारत में तांत्रिकों रसायनज्ञों द्वारा पारे (पारद) से सुवर्ण-स्वर्ण बनने की चर्चा का प्रत्यक्ष साक्षी है, दिल्ली के बिरला मंदिर में लगा शिलालेख। जिस पर अंकित है ‘‘ज्येष्ठ शुक्ल 1, संवत् 1938, तद्नुसार 29 मई, 1942 को श्री पंडित कृष्ण पाल शर्मा ने अनुमान से एक तोले पारे से एक तोले से एक दो रत्ती कम सोना बनाया। उन्होंने पारे को रीठा के भीतर रखकर, उसको एक अथवा आधे रत्ती एक जड़ी-बुटियों से निर्मित सफेद भस्म में मिला कर, रीठे को मट्टी से बन्द कर दिया। इसको मट्टी से बन्द दिये में रखकर भट्ठी पर गर्म करना शुरू किया। अनुमान से 45 मिनटों के बाद सब कोयला राख में परिवर्तित हो गया, उस समय दिया को रीठा सहित पानी में डाल दिया गया। दिया से एकत्र भस्म से एक तोले से कुछ कम मात्रा में स्वर्ण प्राप्त हुआ था।’’

इस प्रस्तर लेख पर, इस क्रिया को देखकर सत्यापित करने वालों में श्री अमृत बी, ठक्कर, श्री गोस्वामी गणेशदत्त जी (लाहौर) श्री सीताराम खेमका (बिरला मिल दिल्ली के सिक्रेटरी) मुख्य इंजीनियर श्री विलसन और प्रसिद्ध साहित्यकार श्री वियोगीहरि के नाम अंकित हैं।

इसी प्रकार की क्रिया का वर्णन बिरला मंदिर, बनारस के शिलापट्ट पर अंकित है। जिसमें श्री पंडित कृष्ण पाल जी ने 18 किलो पारे से 18 किलो सोना बनाया था। इसके साक्षी थे, महात्मागांधी के सचिव महादेव देसाई, गोस्वामी गणेशदत्त एवं श्री जी. के. विरला । यह सोना 72 हजार रुपये में बेचा गया था तथा यह धनराशि सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा पंजाब को दानकर दी गयी थी। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया: 2 जून, 2008)। यह घटना प्राचीन भारतीयों के रस-सिद्धि का प्रबल प्रमाण है तथा आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यह कोल्ड फ्यूजन द्वारा सम्भव है।

अगस्त संहिता में ही विद्युत से जल के अपघटन तथा ताम्र पर रजत (चांदी) और स्वर्ण के विद्युत लेपन की विधि का भी उल्लेख है। इतावली वैज्ञानिकों के विद्युत सेल एवं ऋषि अगस्त की संहिता में वर्णित सेल में शतप्रतिशत साम्यता, यह संकेत करती है, कि यह भारतीय पाण्डुलिपि के इटली में, संभवतः मंगोलो के माध्यम से पहुँचने के परिणाम का फल है। प्रो. रघुवीर के अनुसार (चिन्तन-सृजन, जुलाई-सितम्बर 2008पृ.15)’’ पंद्रहवीं शती के मध्य में हजारों मंगोल इटली में कार्यरत थे। ये लोग अपना प्रार्थना चक्र घुमाने के लिए गर्म भाप की धौंकनियों का प्रयोग करते थे। इन्हीं धौंकनियों ने विकसित होकर जहाजों के भाप से चलने वाले पेंचदार प्रणोदकों को प्रशस्त किया।’’

अब आप महाभारत में वर्णित यंत्र-चालित नौकाओं की सत्यता पर क्या विश्वास नहीं करेंगे?

भारतीय वांग्मय विमानों की चर्चा से भरा हुआ है। पश्चिमोपासक गण इसे मात्र कल्पना मानते थे। परन्तु राइट बधुओं के विमान (आधुनिक) के आविष्कार के लगभग दस वर्ष पूर्व सन् 1865ई. में श्री शिवकर बापूजी तलपदे ने ऋग्वेद वर्णित मरुत सखा तथा बाल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक-विमान’ के विवरणों के आधार पर भारतीयों विमान निर्माण के प्राचीन शास्त्रों के विवेचन के आधार पर वायुयान का एक माडल तैयार किया है। इस आधुनिक मरुत सखा का प्रदर्शन उन्होंने 1865 ई. में मुम्बई (बम्बई) के चौपाटी के मैदान में तत्कालीन बड़ौदा नरेश महाराजा सर सयाजी राव गायकवाड़, श्री लाल जी नारायण और बम्बई के अन्य गण्यमान नागरिकों के सम्मुख किया था। यह विमान बिना किसी चालक के 15 फिट की ऊँचाई तक उड़ा था और पुनः स्वतः धरती पर वापस आ गया था। इस विमान में कोई चालक नहीं था तथा इसमें नीचे उतरने का यंत्र लगाया गया था।

यह तथ्य स्पष्ट रूप से इंगित करता है, कि विमान-विद्या से सम्बद्ध आज अनेक पाण्डुलिपियों के विविध कारणों से, अनुपलब्ध होेते हुए भी विमान-निर्माण में निपुण प्राचीन भारतीय शिल्पियों, विमान विद्या विशारदों का निर्माण कौशल असंदिग्ध है।

इन्हीं विमानों से सम्बद्ध अनेक प्रच्छन्न विज्ञान कथाएँ, वैदिक एवं पौराणिक साहित्या साहित्य में बिखरी पड़ी हैं। हम  सभी अंतरिक्ष में गतिमान त्रिपुर-नगर का, मनशक्ति चालित विमान-सौभ की, पुष्पक आदि विमान कथाओं से भली भांति परिचित हैं।

भारत का आयुर्विज्ञान कितना विकसित था, शल्य शाल्यक-सर्जरी कितनी विकसित थी, इसके तथ्य के प्रत्यक्ष साक्षी महर्षि चरक प्रणीत ‘चरक-संहिता’ एवं महर्षि सुश्रुत रचित ‘सुश्रुत संहिता’ नामक ग्रन्थ हैं। इसी आयुर्वेद के प्रभावों के विवरण हमें अश्विद्वय, राजा ययाति एवं महर्षि च्यवन की कथाओं में प्राप्त होते हैं, तथा विविध प्रकार की सर्जरी के साथ महर्षि सुश्रुत वर्णित ‘क्षार-सूत्र’ पद्धति अर्श (बवासीर) के निदान में आज भी व्यवहृत हो रही है। इसी शल्प-शालक्य विधा से सम्बन्धित है गणेश एवं ऋषि दध्यड्ग की कथाएँ, जिनसे हम भली-भाँति परिचित हैं।

शरीर में रक्त संचार का श्रेय अंग्रेज विज्ञानी विलियम हार्वे को दिया जाता हैं, जिन्होंने 1628ई. में हृदय गति एवं रक्त संचार सम्बन्धी अपनी पुस्तक प्रकाशित की थी। जब कि उनसे दो हजार वर्ष से भी पहले सुश्रुत रचित सुश्रुत संहिता (600ई.पू.) के अध्याय 14वें इस वैज्ञानिक तथ्य का स्पष्ट वर्णन है-

आहारस्य सम्यक् परितस्य यस्तेजो भूतसारा परमसूक्ष्म स रसः इत्युच्चते। तस्य हृदय स्थानं स हृदयात् चतुर्विशतिधर्मनरिनु  प्रवीणश्च.....कृत्सनं शरीरमहरहः तर्पयति वर्धयति धारयति यपायति च अद्रष्टहेतुकेन कर्मणा।।’’

अर्थात् ‘‘सुपचित आहार से जो ऊर्जा शरीर को प्राप्त होती है उसे रस कहते है। उसका स्थान हृदय है, जहाँ से चौबीस धमनियों (दस ऊर्ध्वगामी, उस अधोगामी और चार क्षैतिज) में प्रवेश करते हुए यह संपूर्ण शरीर का दिनानुदिन तपर्ण, वर्धन, धारण तथा यापन करता है।

चरक और सुश्रुत ने मात्र रक्त संचार का वर्णन ही नहीं किया है वरन् रक्त के माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों को पोषण होने की भी चर्चा की गई है।

भारतीय वैद्यों की निपुणता, रोग-निदान में विख्यात थी। इसका प्रमाण 18वीं शताब्दी में कलकत्ता में फैली चेचक-महामारी के निदान हेतु वैद्यों द्वारा चेचक के दानों के पानी को प्रभावित रोगी के अंग में चीरा लगाकर प्रविष्ट करने की पद्धति की चर्चा अंग्रेजों द्वारा इग्लैंड पहुँची थी। इसी तथ्य का कालान्तर, में अंग्रेज चिकित्सक जेनर ने, उपयोग कर वैक्सीनेशन पद्धति को प्रचलित किया।

वैज्ञानिक उपलब्धियों की भांति की प्राचीन भारतीय मनीषियों की कथोपकथन की निपुणता का परिणाम है कि विज्ञान-ज्ञान युक्त रंगों में रंगी अनेक कथाएँ, जो भारतीय वांग्मय में यत्र-तत्र विद्यमान हैं।

हम आप सभी भागवत् पुराण में वर्णित राजा उत्तानपाद एवं ध्रुव की कथा से परिचित है। भारतीय ज्योतिष के चरमोत्कर्ष के समय से नक्षत्रों के मानवीकरण के प्रयास द्वारा ज्योतिष के ज्ञान को, जन-सामान्य तक, संप्रषित करने हेतु इन कथाओं की रचना की गई थी।

भगवत्-पुराण में वर्णित है कि राजा ध्रुव ने छत्तीस हजार वर्षों तक राज्य किया था। ज्योतिष का प्रत्येक क्षात्र यह जानता है कि ध्रुव नक्षत्र एक राशि पर तीन हजार वर्ष तक रहा है। इस प्रकार बारह राशियों पर वह छत्तीस हजार वर्षों तक रहता है, यही इस ध्रुव नक्षत्र का राज्य काल होता है। ध्रुव की भूमि नाम्नी पत्नी से दो पुत्र ‘वत्सर’ एवं ‘कल्प’ हुये थे। हम इस तथ्य से परिचित हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक वर्ष में पूरा करती है-यह अवधि वत्सर कहलाती है। इसी शब्द में संवत् शब्द संलिप्त होकर संवत्सर बन गया। सूर्य ब्रह्माण्ड के केन्द्र की परिक्रमा एक कल्प में करता है-यही ‘कल्प’ भूमि का दूसरा पुत्र है।

इसी प्रकार की कथा राजा त्रिशंकु की है, जो निश्चित रूप से भास्कराचार्य (द्वितीय) के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के संज्ञान के उपरान्त रची गयी होगी।

आज के अनुमानतः दस हजार वर्ष पूर्व पृथ्वी लघु  हिमयुग का दंश झेल रही थी। समय के साथ वातावरण में परिवर्तन हुआ, धरा का तापक्रम बढ़ा, परन्तु सरितायें हिमाच्छादित रहीं। इसी को, जल को हिम से मुक्त कराने की कथा है-इन्द्र द्वारा वृत्त का वध। यह अलंकारित कथा महाभारत के समय तक कथोपकथन के प्रवाह में, ढ़लकर, परिवर्तित कलेवर धारण कर लोकरंजन कर रही है। उपर्युक्त सभी कथाएँ, जो प्राचीन काल में वैज्ञानिक तथ्यों को अपने आँचल में छिपाये, लोक रंजन का माध्यम थीं तथ्यतः प्रच्छन्न विज्ञान कथाएँ हैं। इनमें विगत के विगत के घटना क्रमों की चर्चा तो है, परन्तु आगत के घटनाक्रम पर, उससे जुड़े विविध संदर्भों पर चर्चा नहीं है। मानवीय संवेदनाओं, अभिव्यक्तियों, मानवीय संवेगों, संकल्पों को, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्मिलत करती, कल्पना, रोमांच एवं रहस्य के आवरण से अपनी शब्द काया को अवगुण्ठित किये, भविष्यमुखी कथा-विज्ञान कथा है।

ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है। यह विश्व की धरोहर है। इसके अनेक मंडलों में प्रथम-मंडल सबसे अधिक प्राचीन है। इस मंडल में मानवीय कल्पना के आयामों का दर्शन होता है तथा वहीं पर इस मंडल के अलंकारित मंत्रों में विज्ञान एवं प्राद्योगिकी के विकास की भी झलक विद्यमान है।

प्रारम्भ में मानव सरिताओं के जल पर आश्रित था। कालान्तर में मानवीय विस्तार के परिणाम स्वरूप वह सरिताओं से दूर कृषि आदि कार्यों के संपादन हेतु बसने लगा। सरिताओं से जल लाना कठिन था, इस कारण उसने धरती का खनन कर, उपलब्ध जल से अपना कार्य चलाना प्रारम्भ किया होगा।

इस प्रकार के खनित कूप वर्षा के आने पर किनारे पर एकत्र खुदी हुई मिट्टी से भर जाते रहे होगें। इस कारण सुदृढ़ कूप के निर्माण की आवश्यकताओं ने तथा यज्ञ-वेदिका निर्माण की आवश्यकता ने उसे मिट्टी की पकी हुई ईटों को बनाने के लिए प्रेरित किया होगा।

ईंटों को पकाने की तकनीक मानव द्वारा पहिया अथवा चक्र बनाने की तकनीक से कम महत्वपूर्ण नहीं थी। पकी हुई ईंटों के प्रयोग ने यज्ञ हेतु निर्माण की जाने वाली वेदिकाओं को स्थायित्व ही नहीं प्रदान किया वरन कूपों को सुदृढ़ता प्रदान  करने का प्रारम्भ किया।

स्वाभाविक है कि गहरे और सुदृढ़ कूप के निर्माण कार्य में तकनीकी समस्या शिल्पियों के सम्मुख आई  होगी। इस की झंकार निम्न अलंकारिक मंत्र में स्पष्ट सुनायी देती है-

त्रितः कूपे वहितो देवान्हवात ऊतये।
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्न हूरणादुरू वित्तमें अस्य रोदसी।।
-ऋग्वेदः मं. 1 सू. 105 मंत्र. 11) त्रित नामक कूप निर्माता शिल्पी निर्माण काल में गोल दिख रहे कूप में, कुएँ में फँस गया। उसने अपने उद्धार के लिए देवगुरु बृहस्पति का आह्वान किया, पुकारा।

गणितज्ञ देवगुरु बृहस्पति ने कूप का पूर्णरूपेण गोल न होना जानकर, उसकी दीवारों को पूर्ण रूपेण लम्बवत करने, कूप को गोल करने का संकेत देकर, शिल्पी त्रित का उद्धार किया। तथ्यतः यदि कूप की परिधि एवं व्यास का अनुपात 22/7 से न्यूनाधिक होगा। तो वृत अशुद्ध होगा तथा निर्माण पूर्ण रूपेण स्थिर न रह सकेगा, गिर जायेगा, यह यह सर्वविदित गणितीय तथ्य है।

यह छोटी सी, महत्त्वपूर्ण कथा, भविष्य में कूप निर्माण की तकनीक को ही नहीं बताती, वरन इस कथा से स्पष्ट होता है कि भविष्य में कूपों के निर्माण में इस प्रकार की त्रुटि संशोधन कर, शिल्पियों ने पुराकाल में सुदृढ़ कूपों के निर्माण का शंखनाद किया होगा। इतना ही नहीं यह भविष्यमुखी-भारत की प्रथम विज्ञान कथा है, जो पाई के मान को वैदिक कालीन गणितज्ञों को ज्ञात होने का भी संकेत देती है।

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