दृणनिश्चयी, महान देशभक्त, धर्मात्मा, राष्ट्र निर्माता तथा कुशल प्रशासक शिवाजी का व्यक्तित्व बहुमुखी था। माँ जीजाबाई
के प्रति उनकी श्रद्धा ओर आज्ञाकारिता उन्हे एक आदर्श सुपुत्र सिद्ध करती
है। शिवाजी का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति
उनसे प्रभावित हो जाता था। साहस, शौर्य तथा तीव्र बुद्धी के धनि शिवाजी का
जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शिवाजी की जन्मतीथि के
विषय में सभी विद्वान एक मत नही हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार 20 अप्रैल
1627 है।
शिवाजी की शिक्षा-दिक्षा माता जीजाबाई के
संरक्षण में हुई थी। माता जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ती की महिला थीं, उनकी इस
प्रवृत्ति का गहरा प्रभाव शिवाजी पर भी था। शिवाजी की प्रतिभा को निखारने
में दादाजी कोंणदेव का भी विषेश योगदान था। उन्होने शिवाजी को सैनिक एवं
प्रशासकीय दोनो प्रकार की शिक्षा दी थी। शिवाजी में उच्चकोटी की हिन्दुत्व
की भावना उत्पन्न करने का श्रेय माता जीजाबाई को एवं दादा कोंणदेव को जाता
है। छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल पूना में हुआ था। में हुआ था ।
शिवाजी की बुद्धी बङी ही व्यवहारिक थी, वे
तात्कालिक सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति बहुत
सजग थे। हिन्दु धर्म, गौ एवं ब्राह्मणों की रक्षा करना उनका उद्देश्य था।
शिवाजी हिन्दु धर्म के रक्षक के रूप में मैदान में उतरे और मुग़ल
शाशकों के विरुद्ध उन्होने युद्ध की घोषणां कर दी। वे मुग़ल शासकों के
अत्याचारों से भली-भाँति परचित थे इसलिए उनके अधीन नही रहना चाहते थे।
उन्होने मावल प्रदेश के युवकों में देशप्रेम की भावना का संचार कर कुशल तथा
वीर सैनिकों का एक दल बनाया। शिवाजी अपने वीर तथा देशभक्त सैनिकों के
सहयोग से जावली, रोहिङा, जुन्नार, कोंकण, कल्याणीं आदि उनेक प्रदेशों पर
अधिकार स्थापित करने में कामयाब रहे। प्रतापगढ तथा रायगढ दुर्ग जीतने के
बाद उन्होने रायगढ को मराठा राज्य की राजधानी बनाया था।
शिवाजी पर महाराष्ट्र के लोकप्रिय संत रामदास एवं तुकाराम का भी प्रभाव था। संत रामदास शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु थे, उन्होने ही शिवाजी को देश-प्रेम और देशोध्दार के लिये प्रेरित किया था।
शिवाजी की बढती शक्ती बीजापुर के लिये
चिन्ता का विषय थी। आदिलशाह की विधवा बेगम ने अफजल खाँ को शिवाजी के
विरुद्ध युद्ध के लिये भेजा था। कुछ परिस्थिती वश दोनो खुल्लम- खुल्ला
युद्ध नही कर सकते थे। अतः दोनो पक्षों ने समझौता करना उचित समझा। 10
नवम्बर 1659 को भेंट का दिन तय हुआ। शिवाजी जैसे ही अफजल खाँ के गले मिले,
अफजल खाँ ने शिवाजी पर वार कर दिया। शिवाजी को उसकी मंशा पर पहले से ही शक
था, वो पूरी तैयारी से गये थे। शिवाजी ने अपना बगनखा अफजल खाँ के पेट में
घुसेङ दिया । अफजल खाँ की मृत्यु के पश्चात बीजापुर पर शिवाजी का अधिकार हो
गया। इस विजय के उपलक्ष्य में शिवाजी, प्रतापगढ में एक मंदिर का निर्माण
करवाया जिसमें माँ भवानी की प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया ।
शिवाजी एक कुशल योद्धा थे। उनकी सैन्य
प्रतिभा ने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली शासक को भी विचलित कर दिया था। शिवाजी
की गोरिल्ला रणनीति( छापामार रणनीति) जग प्रसिद्ध है। अफजल खाँ की हत्या,
शाइस्ता खाँ पर सफल हमला और औरंगजेब जैसे चीते की मांद से भाग आना, उनकी
इसी प्रतिभा और विलक्षण बुद्धी का परिचायक है। शिवाजी एक सफल कूटनीतिज्ञ
थे। इसी विषेशता के बल पर वे अपने शत्रुओं को कभी एक होने नही दिये।
औरंगजेब से उनकी मुलाकात आगरा में हुई थी जहाँ उन्हे और उनके पुत्र को
गिरफ्तार कर लिया गया था। परन्तु शिवाजी अपनी कुशाग्र बुद्धी के बल पर फलों की टोकरियों में छुपकर भाग निकले थे। मुगल-मराठा सम्बन्धों में यह एक प्रभावशाली घटना थी।
बीस वर्ष तक लगातार अपने साहस, शौर्य और
रण-कुशलता द्वारा शिवाजी ने अपने पिता की छोटी सी जागीर को एक स्वतंत्र तथा
शक्तीशाली राज्य के रूप में स्थापित कर लिया था। 6 जून, 1674 को शिवाजी का
राज्याभिषेक हुआ था। शिवाजी जनता की सेवा को ही अपना धर्म मानते थे।
उन्होने अपने प्रशासन में सभी वर्गों और सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिये
समान अवसर प्रदान किये। कई इतिहासकरों के अनुसार शिवाजी केवल निर्भिक सैनिक
तथा सफल विजेता ही न थे, वरन अपनी प्रजा के प्रबुद्धशील शासक भी थे।
शिवाजी के मंत्रीपरिषद् में आठ मंत्री थे, जिन्हे अष्ट-प्रधान कहते हैं।
छत्रपति शिवाजी के राष्ट्र का ध्वज
केशरिया है। इस रंग से संबन्धित एक किस्सा है। एक बार शिवाजी के गुरू,
समर्थ गुरू रामदास भिक्षा माँग रहे थे, तभी शिवाजी ने उन्हे देखा उनको बहुत
खराब लगा।
शिवाजी, गुरु के चरणों में बैठ कर आग्रह
करने लगे कि आप ये समस्त राज्य ले लिजीये एवं भिक्षा न माँगे। शिवाजी की
भक्ती देख समर्थ गुरु रामदास अत्यधिक प्रसन्न हुए और शिवाजी को समझाते हुए
बोले कि मैं राष्ट्र के बंधन में नही बंध सकता किन्तु तुम्हारे आग्रह को
स्वीकार करता हुँ और तुम्हे ये आदेश देता हुँ कि आज से मेरा ये राज्य तुम
कुशलता पूर्वक संचालित करो। ऐसा कहते हुए समर्थ गुरु रामदास अपने दुप्पट्टे
का एक टुकङा फाङ कर शिवाजी को दिये तथा बोले कि वस्त्र का ये टुकङा सदैव
मेरे प्रतीक के रूप में तुम्हारे साथ तुम्हारे राष्ट्र ध्वज के रूप में
रहेगा जो तुम्हे मेरे पास होने का बोध कराता रहेगा।
कुशल एवं वीर शासक छत्रपति शिवाजी का
अंतिम समय बङे कष्ट एवं मानसिक वेदना में व्यतीत हुआ। घरेलू उलझने एवं
समस्यायें उनके दुःख का कारण थीं। बङे पुत्र सम्भाजी के व्यवहार से वे
अत्यधिक चिन्तित थे। तेज ज्वर के प्रकोप से 3 अप्रैल 1680 को शिवाजी का स्वर्गवास हो गया।
शिवाजी केवल मराठा राष्ट्र के निर्माता ही
नही थे, अपितु मध्ययुग के सर्वश्रेष्ठ मौलिक प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ती थे।
महाराष्ट्र की विभिन्न जातियों के संर्धष को समाप्त कर उनको एक सूत्र में
बाँधने का श्रेय शिवाजी को ही है। इतिहास में शिवाजी का नाम, हिन्दु रक्षक
के रूप में सदैव सभी के मानस पटल पर विद्यमान रहेगा। भारतीय इतिहासकारों के
शब्दों के साथ कलम को विराम देते हैं।
डॉ. रमेश चन्द्र मजुमदार के
अनुसार- “भारतीय इतिहास के रंगमंच पर शिवाजी का अभिनय केवल एक कुशल
सेनानायक एवं विजेता का न था, वह एक उच्च श्रेणीं के शासक भी थे।“सर जदुनाथ सरकार के अनुसार- “शिवाजी भारत के अन्तिम हिन्दु राष्ट्र निर्माता थे, जिन्होने हिन्दुओं के मस्तक को एक बार पुनः उठाया।“
आभार:-
अनिता शर्मा
Indore , E-mail ID: voiceforblind@gmail.com
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