गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013



बच्चे की पहली शिक्षक उसकी मां होती है। स्वामी विवेकानंद तीस वर्ष के युवा थे तो उन्होंने मां से धर्म प्रचार के लिए विदेश जाने की अनुमति मांगी। मां ने रसोईघर में काम करते हुए कहा, ‘‘जरा वह चाकू दे दो।’’ युवा संन्यासी चाकू के लोहे का फल अपने हाथों में पकड़ कर लकड़ी का मूठ मां की तरफ कर देता है। मां का आशीर्वाद गूंजता है, ‘‘तुम्हारी यात्रा शुभ हो। तुम्हें चाकू किस तरह उठाकर दिया जाता है, इसकी तमीज तो है, तुमसे  किसी का अहित नहीं होगा।’’

ऐसी महान विदुषी नारी के पुत्र थे स्वामी विवेकानंद परंतु आज की मां इतनी नि:सहाय कैसे हो गई। युवा वर्ग में ऊर्जा के संचार का प्रारंभ घर- परिवार से करना होगा तभी हमारे समाज, राष्ट्र का उत्थान हो सकेगा। आज हम हृदय से ज्यादा महत्व अपने मस्तिष्क को देते हैं और जो व्यक्ति अपने हृदय की सुनता या कहता है तो उसे हम ‘यू आर इमोशनल पर्सन’ कह कर उसका उपहास करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने हृदय की महत्ता बताते हुए कहा था, ‘‘मस्तिष्क एवं हृदय दोनों की हमें आवश्यकता है। अवश्य हृदय बहुत श्रेष्ठ है, हृदय के माध्यम से जीवन की महान् अन्त:प्रेरणाएं आती हैं। मस्तिष्कवान पर हृदयशून्य होने की अपेक्षा मैं तो यह सौ बार पसंद करूंगा कि मेरे जरा भी मस्तिष्क न हो पर थोड़ा-सा हृदय हो। जिसका हृदय है उसी का जीवन संभव है, उसी की उन्नति संभव है ङ्क्षकतु जिसके तनिक भी हृदय नहीं है केवल मस्तिष्क है, वह सूखकर मर जाता है।’’

स्वामी विवेकानंद ने ‘‘उठो! जागो!’’ का आह्वान किया था। वह शक्ति के उपासक थे। उनका विश्वास था कि मातृशक्ति जीवन को संचालित कर रही है। वह काली को प्रलयकारिणी शक्ति मानते थे, जो दुख और संकट का नाश कर सकती है। विवेकानंद जातिवाद के विरोधी थे। अपने एक मुस्लिम नाविक की चार वर्ष की कन्या का, वह उमा रूप में पूजन करते थे। महापुरुषों की यही लाक्षणिक पहचान होती है। स्वामी जी हिंदुस्तान के एकमात्र धार्मिक वांड्मय संन्यासी थे जिन्होंने चमत्कारों का सहारा कभी नहीं लिया।
विवेकानंद हर भारतीय को धार्मिक, आध्यात्मिक शिक्षा के साथ-साथ वीर-धीर और बहादुर बनाना चाहते थे। वह भारत मां के सच्चे उपासक थे और हर भारतीय को इसी रूप में देखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ङ्क्षहदुस्तानियों को आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘हे वीर! निर्भीक बनो, साहस धारण करो! इस बात पर गर्व करो  कि हम भारतीय हैं और गर्व के साथ कहो कि मैं भारतीय हूं और हर भारतीय मेरा भाई है।’’

ऐसे वीर-धीर महान् संन्यासी, जिसे अपनी भारतीयता पर गर्व था वह ज्ञान का सूर्य महासमाधि धारण कर विलीन हो गया। वह शुक्रवार का दिन था, चौथी जुलाई 1902 ईस्वी। स्वामी जी की आयु तब 39 वर्ष 5 माह 22 दिन थी।

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें