गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

स्वामी विवेकानंद


बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

स्वामी विवेकानंद प्रश्नमंजुषा #2

स्वामी विवेकानंद प्रश्नमंजुषा #2

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सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

सेतुसमुद्रम बनाम इतिहास राम के सेतु .....


भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच चूने की उथली चट्टानों की चेन है , इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज ( आदम का पुल ) के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 30 मील (48 किमी ) है। यह ढांचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। अनेक स्थानों पर यह सूखी और कई जगह उथली है जिससे जहाजों का आवागमन संभव नहीं है। इस चट्टानी उथलेपन के कारण यहां नावें चलाने में खासी दिक्कत आती है। कहा जाता है कि 15 शताब्दी तक इस ढांचे पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था लेकिन तूफानों ने यहां समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया।

क्या है सेतुसमुद्रम परियोजना


2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया। इसके तहत एडम्स ब्रिज के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए कुछ चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएंगे। माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे। मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।

नासा की तस्वीर
नासा से मिली तस्वीर का हवाला देकर दावा किया जाता है कि अवशेष मानवनिर्मित पुल के हैं। नासा का कहना है , ' इमेज हमारी है लेकिन यह विश्लेषण हमने नहीं दिया। रिमोट इमेज से नहीं कहा जा सकता कि यह मानवनिर्मित पुल है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने कहा है कि उसके खगोल वैज्ञानिकों द्वारा ली गई तस्वीरें यह साबित नहीं करतीं कि हिंदू ग्रंथ रामायण में वर्णित भगवान राम द्वारा निर्मित रामसेतु का वास्तविक रूप में कोई अस्तित्व रहा है। यह बयान देने के साथ ही नासा ने भाजपा के उस बयान को भी नकार दिया है जिसमें भाजपा ने कहा था कि नासा के पास पाक स्ट्रेट पर एडम्स ब्रिज की तस्वीरें हैं जिन्हें भारत में रामसेतु के नाम से जाना जाता है और कार्बन डेटिंग के जरिए इसका समय 1.7 अरब साल पुराना बताया गया है। नासा के प्रवक्ता माइकल ब्रॉकस ने कहा कि उन्हें कार्बन डेटिंग किए जाने की कोई जानकारी नहीं है।ब्रॉकस ने कहा कि कुछ लोग कुछ तस्वीरें यह कहकर पेश करते हैं कि यह नासा के वैज्ञानिकों द्वारा ली गई हैं लेकिन ऐसे चित्रों की बदौलत कुछ भी साबित करने का कोई आधार नहीं है। गौरतलब है कि अक्टूबर 2002 में कुछ एनआरआई वेबसाइट्स, भारत मूल की समाचार एजेंसियों और हिंदू न्यूज सर्विस के माध्यम से कुछ खबरें आई थीं जिनमें कहा गया था कि नासा द्वारा लिए गए चित्रों में पाक स्ट्रीट पर एक रहस्यमय प्राचीन पुल पाया गया है और इन खबरों को तब भी नासा ने नकारा था। गौरतलब है कि इस पूरे मामले के कारण रामसेतु जिस जगह बताया गया है, भारत और श्रीलंका के बीच बने जलडमरू मध्य के उसी स्थान पर दक्षिण भारत द्वारा प्रस्तावित 24 अरब रुपए की सेतुसमुद्रम नहर परियोजना विवादास्पद हो गई है।

रामसेतु मिथक है या...

वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्री राम ने सीता को लंकापति रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद मांगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता मांगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया। डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्री राम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। यही हुआ भी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला।

धर्मग्रंथों में जिक्र है सेतुबंधन का

पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरा पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के डांस ड्रामा में सेतु बंधन का जिक्र किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्री राम के सेतु का जिक्र किया गया है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ-साथ राम सेतु कहा गया है।

कितना पुराना है रामसेतु

राम सेतु की उम्र को लेकर महाकाव्य रामायण के संदर्भ में कई दावे किए जाते रहे हैं। कई जगह इसकी उम्र 17 लाख साल बताई गई है, तो कुछ एक्सपर्ट्स इसे करीब साढ़े तीन हजार साल पुराना बताते हैं। इस पर भी कोई एकमत नहीं है। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण सवाल उठता रहा है कि आखिर 30 किलोमीटर तक लंबा यह छोटे-छोटे द्वीपों का समूह बना कैसे?
1) राम सेतु करीब 3500 साल पुराना है - रामासामी कहते हैं कि जमीन और बीचों का निर्माण साढ़े तीन हजार पहले रामनाथपुरम और पंबन के बीच हुआ था। इसकी वजह थी रामेश्वरम और तलाईमन्नार के दक्षिण में किनारों को काटने वाली लहरें। वह आगे कहते हैं कि हालांकि बीचों की कार्बन डेटिंग मुश्किल से ही रामायण काल से मिलती है, लेकिन रामायण से इसके संबंध की पड़ताल होनी ही चाहिए।
2) रामसेतु प्राकृतिक तौर पर नहीं बना - जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टैक्नोलॉजी के सदस्य डॉ. बद्रीनारायण कहते हैं कि इस तरह की प्राकृतिक बनावट मुश्किल से ही दिखती है। यह तभी हो सकता है, जब इसे किसी ने बनाया हो। कुछ शिलाखंड तो इतने हल्के हैं कि वे पानी पर तैर सकते हैं।
3) ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने विस्तृत सर्वे में इसे प्राकृतिक बताया था - देश के इस जाने माने इंस्टीट्यूट ने राम सेतु के आसपास 91 बोरहोल्स बनाकर वहां से सैंपल लिए थे और उनकी पड़ताल की थी। इन्हें सेतु प्रोजेक्ट के दफ्तर में रखा गया था।
4) नासा कहता है कि रामसेतु प्राकृतिक तौर पर बना - अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का कहना है कि भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में मौजूद ढांचा किसी भी हालत में आदमी का बनाया हुआ नहीं है। यह पूरी तरह प्राकृतिक है। सेतुसमुद्रम कॉपरेरेशन लि. के सीईओ एनके रघुपति के मुताबिक उन्हें नासा के जॉन्सन स्पेस सेंटर की ओर से मिले ईमेल में नासा ने अपने पक्ष का खुलासा किया है। नासा की तस्वीरों को लेकर काफी होहल्ला पहले ही मच चुका है।

श्रीरामसेतु के टूटने का मतलब

भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित श्रीरामसेतु अगर भारत में न होकर विश्व में कहीं और होता तो वहां की सरकार इसे ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर संरक्षित करती। भारत में भी यदि इस सेतु के साथ किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख महापुरूष का नाम होता तो इसे तोड़ने की कल्पना तो दूर इसे बचाने के लिए संपूर्ण भारत की सेक्युलर बिरादरी जमीन आसमान एक कर देती। यह केवल यहीं संभव है कि यहां की सरकार बहुमत की आस्था ही नहीं पर्यावरण, प्राकृतिक संपदा, लाखों भारतीयों की रोजी-रोटी और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रामसेतु जैसी प्राचीनतम धरोहर को नष्ट करने की हठधर्मिता कर रही है। हिंदू समाज विकास का विरोधी नहीं परंतु यदि कोई हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी मानसिकता के कारण विकास की जगह विनाश को आमंत्रित करेगा तो उसे हिंदू समाज के आक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। समुद्री यात्रा को छोटा कर 424 समुद्री मील बचाने व इसके कारण समय और पैसे की होने वाली बचत से कोई असहमत नहीं हो सकता लेकिन सेतुसमुन्द्रम योजाना के कम खर्चीले और अधिक व्यावहारिक विकल्पों पर विचार क्यों नहीं किया गया जिनसे न केवल रामसेतु बचता है अपितु प्रस्तावित विकल्प के विनाशकारी नुकसानों से बचा सकता है? इस योजना को पूरा करने की जल्दबाजी और केवल अगली सुनवाई तक रामसेतु को क्षति न पहुंचाने का आश्वासन देने से माननीय सुप्रीम कोर्ट को मना करना क्या भारत सरकार के इरादों के प्रति संदेह निर्माण नहीं करता?
1860 से इस परियोजना पर विचार चल रहा है। विभिन्न संभावनाओं पर विचार करने के लिए कई समितियों का गठन किया जा चुका है। सभी समितियों ने रामसेतु को तोड़ने के विकल्प को देश के लिए घातक बताते हुए कई प्रकार की चेतावनियां भी दी हैं। इसके बावजूद जिस काम को करने से अंग्रेज भी बचते रहे, उसे करने का दुस्साहस वर्तमान केंद्रीय सरकार कर रही है। सभी विकल्पों के लाभ-हानि का विचार किए बिना जिस जल्दबाजी में इस परियोजना का उद्घाटन किया गया, उसे किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। भारत व श्रीलंका के बीच का समुद्र दोनों देशों की एतिहासिक विरासत है परंतु अचानक 23 जून 2005 को अमेरिकी नौसेना ने इस समुद्र को अंतरराष्ट्रीय समुद्र घोषित कर दिया और तुतीकोरण पोर्ट ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष रघुपति ने 30 जून 2005 को गोलमोल ढंग से अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर दिया। इसके तुरंत बाद 2 जुलाई 2005 को भारत के प्रधानमंत्री व जहाजरानी मंत्री कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और करूणानिधि को साथ ले जाकर आनन-फानन में इस परियोजना का उद्घाटन कर देते हैं। इस घटनाचक्र से ऐसा लगता है मानो भारत सरकार अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी दे रही है।
कनाडा के सुनामी विशेषज्ञ प्रो. ताड मूर्ति ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था कि 2004 में आई विनाशकारी सुनामी लहरों से केरल की रक्षा रामसेतु के कारण ही हो पाई। अगर रामसेतु टूटता है तो अगली सुनामी से केरल को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस परियोजना से हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएंगे और इन पर आधारित लाखों लोगों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रूपये की वार्षिक आय होती है, से हमें वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। इसीलिए कनाडा ने थोरियम पर आधारित रियेक्टर विकसित किया है। यदि विकल्प का सही प्रकार से प्रयोग किया जाए तो हमें यूरेनियम के लिए अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। इसीलिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद कई बार थोरियम आधारित रियेक्टर बनाने का आग्रह किया है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भण्डार से हाथ धोना पड़ेगा।
इतना सब खोने के बावजूद रामसेतु को तोड़कर बनाए जाने वाली इस नहर की क्या उपयोगिता है, यह भी एक बहुत ही रोचक तथ्य है। 300 फुट चौड़ी व 12 मीटर गहरी इस नहर से भारी मालवाहक जहाज नहीं जा सकेंगे। केवल खाली जहाज या सर्वे के जहाज ही इस नहर का उपयोग कर सकेंगे और वे भी एक पायलट जहाज की सहायता से जिसका प्रतिदिन खर्चा 30 लाख रूपये तक हो सकता है। इतनी अधिक लागत के कारण इस नहर का व्यावसायिक उपयोग नहीं हो सकेगा। इसीलिए 2500 करोड़ रूपये की लागत वाले इस प्रकल्प में निजी क्षेत्र ने कोई रूचि नहीं दिखाई। ऐसा लगता है कि अगर यह नहर बनी तो इससे जहाज नहीं केवल सुनामी की विनाशकारी लहरें ही जाएंगी।
रामसेतु की रक्षा के लिए भारत के अधिकांश साधु संत, कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक संगठन, कई पूर्व न्यायाधीश, स्थानीय मछुआरे सभी प्रकार के प्रजातांत्रिक उपाय कर चुके हैं। लेकिन जेहादी एवं नक्सली आतंकियों से बार-बार वार्ता करने वाली सेकुलर सरकार को इन देशभक्त और प्रकृति प्रेमी भारतीयों से बात करने की फुर्सत नहीं है। इसीलिए मजबूर होकर 12 सितम्बर 2007 को पूरे देश में चक्का जाम का आंदोलन करना पड़ा। इससे रामसेतु को तोड़ने पर होने वाले आक्रोश की कल्पना की जा सकती है।
 
राम सेतु नहीं यह नल सेतु

सेतु समुद्रम परियोजना पर एक बार चर्चा फिर छिड़ गई है। खासकर इसके ऐतिहासिक और वैज्ञानिक संदर्भों के बारे में। समुद्र पर बनाए गए पुल के बारे में चर्चा तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस और वाल्मीक रामायण के अलावा दूसरी अन्य राम कथाओं में भी मिलती हैं। आश्चर्यजनक ढंग से राम के सेतु की चर्चा तो आती है लेकिन उस सेतु का नाम रामसेतु था, ऐसा वर्णन नहीं मिलता। गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में अलग ही वर्णन आता है। कहा गया है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल के बुद्धिकौशल से संपन्न हुआ था।
वाल्मीक रामायण में वर्णन है कि : -
नलर्श्चके महासेतुं मध्ये नदनदीपते:। स तदा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभि:।।
रावण की लंका पर विजय पाने में समुद्र पार जाना सबसे कठिन चुनौती थी। कठिनता की यह बात वाल्मीक रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनो में आती है-
वाल्मीक रामायण में लिखा है -
अब्रवीच्च हनुमांर्श्च सुग्रीवर्श्च विभीषणम। कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरूणालयम्।। सैन्यै: परिवृता: सर्वें वानराणां महौजसाम्।।
(हमलोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबलवान् वानरों की सेना के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे ?) (6/19/28)
वहीं तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णन है -
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांती।।
समुद्र ने प्रार्थना करने पर भी जब रास्ता नहीं दिया तो राम के क्रोधित होने का भी वर्णन मिलता है। वाल्मीक रामायण में तो यहां तक लिखा है कि समुद्र पर प्रहार करने के लिए जब राम ने अपना धनुष उठाया तो भूमि और अंतरिक्ष मानो फटने लगे और पर्वत डगमडा उठे।
तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने। रोदसी सम्पफालेव पर्वताक्ष्च चकम्पिरे।।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा गया है कि तब समुद्र ने राम को स्वयं ही अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बतलाई थी -
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिघि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किए" गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
(समुद्र ने कहा -) हे नाथ। नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आर्शीवाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउ" बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि ब"धाइअ। जेहि यह सुजसु लोक तिहु" गाइअ।।
(मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा)सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइये, जिससे, तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।)
यह पुल इतना मजबूत था कि रामचरितमानस के लंका कांड के शुरूआत में ही वर्णन आता है कि -
बॉधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्। ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।। (6/22/76)
सेतु बनाने में हाई टेक्नालाजी प्रयोग हुई थी इसके वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं, जैसे -
पर्वतांर्श्च समुत्पाट्य यन्त्नै: परिवहन्ति च।
(कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा - समुद्रतट पर ले आए)। इसी प्रकार एक अन्य जगह उदाहरण मिलता है - सूत्राण्यन्ये प्रगृहृन्ति हृाायतं शतयोजनम्। (6/22/62) (कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से -सिधाई में हो रहा था।)
सेतु पर रोचक प्रसंग :
* तेलुगू भाषा की रंगनाथरामायण में प्रसंग आता है कि सेतु निर्माण में एक गिलहरी का जोड़ा भी योगदान दे रहा था। यह रेत के दाने लाकर पुल बनाने वाले स्थान पर डाल रहा था।
* एक अन्य प्रसंग में कहा गया है कि राम-राम लिखने पर पत्थर तैर तो रहे थे लेकिन वह इधर-उधर बह जाते थे। इनको जोड़ने के लिए हनुमान ने एक युक्ति निकाली और एक पत्थर पर ‘रा’ तो दूसरे पर ‘म’ लिखा जाने लगा। इससे पत्थर जुड़ने लगे और सेतु का काम आसान हो गया।
* तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस में वर्णन आता है कि सेतु निर्माण के बाद राम की सेना में वयोवृद्ध जाम्बवंत ने कहा था - ‘श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान’ अर्थात भगवान श्री राम के प्रताप से सिंधु पर पत्थर भी तैरने लगे।
 
वाल्मीकि रामायण में रामसेतु के प्रमाण

रामसेतु के मामले में भारतीय पुरातत्व विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में राम और रामायण के अस्तित्व को नकारने वाला जो हलफनामा दायर किया था वह करोड़ों देशवासियों की आस्था को चोट पहुंचाने वाला ही नहीं बल्कि इससे पुरातत्व विभाग की इतिहास दृष्टि पर भी बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। एएसआई के निदेशक (स्मारक) सी दोरजी का यह कहना कि राम सेतु के मुद्दे पर वाल्मीकि रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता है, भारत की ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति के सर्वथा विरूद्ध है।
एक पुरातत्ववेत्ता के रूप में शायद उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए था कि एएसआई के संस्थापक और पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने सन 1862-63 में अयोध्या की पुरातात्त्विक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी तो उन्होंने वाल्मीकि रामायण के आधार पर अयोध्या को एक ऐतिहासिक नगरी बताया था। कनिंघम ने उस रिपोर्ट में यह भी बताया था कि मनु द्वारा स्थापित इस अयोध्या के मध्य में राम का जन्म स्थान मंदिर था। सन् 1908 में प्रकाशित ब्रिटिशकालीन ‘इम्पीरियल गजैटियर ऑफ इन्डिया’ के खण्ड पांच में ‘एडम ब्रिज’ के बारे में जो ऐतिहासिक विवरण प्रकाशित हुआ है उसमें भी यह कहा गया है कि हिन्दू परम्परा के अनुसार राम द्वारा लंका में सैनिक प्रयाण के अवसर पर यह पुल हनुमान और उनकी सेना द्वारा बनाया गया था। डॉ. राजबली पाण्डेय के ‘हिन्दू धर्म कोश’ (पृ. 558) के अनुसार रामायण के नायक राम ने लंका के राजा रावण पर आक्रमण करने के लिए राम सेतु का निर्माण किया था। भारतीय तट से लेकर श्रीलंका के तट तक समुद्र का उथला होना और वह भी एक सीध में इस विश्वास को पुष्ट करता है कि यह रामायणकालीन घटनाक्रम से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अवशेष है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का बाईसवां अध्याय विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा सौ योजन लम्बे रामसेतु का विस्तार से वर्णन करता है। रामायण में 100 योजन लम्बे और 10 योजन चौड़े इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है-
दश योजन विस्तर्ीणं शतयोजनमायतम्।
दहशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम् ।। वा.रा., युद्ध. 22.76
नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया थाा। विशालकाय पर्वतों और वृक्षों को काटकर समुद्र में फेंका गया था। बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वत खण्डों को उखाड़कर यंत्रों के द्वारा समुद्र तट तक लाया गया था- ‘पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रै: परिवहन्ति च’। वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त ‘अध्यात्म रामायण’ के युद्धकाण्ड में भी नल द्वारा सौ योजन सेतु निर्माण का उल्लेख मिलता है-
‘‘बबन्ध सेतुं शतयोजनायतं सुविस्तृतं पर्वत पादपैर्दृढम्।’’
दरअसल. रामायणकालीन इतिहास के सन्दर्भ में पुरातत्त्व विभाग का गैर ऐतिहासिक रवैया रहा है। प्रोव् बी.बी. लाल की अध्यक्षता में 1977 से 1980 तक रामायण परियोजना के अन्तर्गत अयोध्या, चित्रकूट, जनकपुर, श्रृंगवेरपुर, भरद्वाज आश्रम का पुरातत्त्व विभाग ने उत्खनन किया किन्तु श्रृंगवेरपुर को छोड़कर अन्य रामायण स्थलों की रिपोर्ट आज तक प्रकाशित नहीं हुई। वर्तमान निदेशक (स्मारक) को रामायण की ऐतिहासिकता को नकारने से पहले पुरातत्त्व विभाग द्वारा रामायण परियोजनाओं की रिपोर्ट की जानकारी देनी चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि जब रामायण के स्थलों की खुदाई का सवाल हो तो वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मान लिया जाए मगर रामसेतु के मसले पर रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज मानने से इन्कार कर दिया जाए। जाने माने पुरातत्त्ववेत्ता गोवर्धन राय शर्मा के अनुसार प्रो. लाल को परिहार से ताम्रयुगीन संस्कृति के तीर भी मिले थे जो स्थानीय लागों के अनुसार लव और कुश के तीर थे। किन्तु इन सभी पुरातत्त्वीय सामग्री की व्याख्या तभी संभव है जब वाल्मीकि रामायण को इतिहास का स्रोत माना जाए।

वीर सावरकर जी से जुडे कुछ रोचक तथ्य.

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* सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य योद्धा थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए।

* वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता को दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया।

* सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।

* वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अँगरेज सरकार ने वापस ले लिया।

* वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।

* वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया।

* वीर सावरकर ने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम ‍दिया था, जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने माना।

* उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। वे ऐसे प्रथम राजनैतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुँचा।

* वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया।

* दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंदमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएँ लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

प्राचीन भारत

आज हम संचार क्रान्ति के युग में है। इस संचार क्रान्ति ने अखिल विश्व को संचार सूत्र में बांध कर उसे विश्व-ग्राम में परिवर्तित कर दिया है। फलस्वरूप पश्चिम की सभ्यता एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कपाट की अर्गला खुल गयी है। पश्चिम का सांस्कृतिक-समीर, समाचार पत्रों, संचार  उपग्रहों, इन्टरनेट एवं  सर्वोपरि-टेलीविज्ञन के माध्यम  से, हमारे समाज में एक अभिनव-संचार-सांस्कृतिक, उसमें निहित जीवन-दर्शन को ही नहीं वरन् परोक्ष  में हमारी सनातन-शाश्वत संस्कृति को प्रदूषित कर रहा है। आज मात्र ललाम वारिधारणी गंगा ही प्रदूषित नहीं है, वरन् प्रदूषित हो रही है ज्ञान-सरस्वती, प्रच्छन्न रूप में।

इस नव-प्रभाव के प्राकट्य से सैकड़ों वर्षों पूर्व हमारी संस्कृति को नष्ट करने का जो सुनियोजित षड्यंत्र इसाई-मिशनरियों द्वारा प्रारम्भ किया गया था, वही कलेवर बदल प्रगतिशील विचारकों द्वारा अनेक स्वरूप में व्यक्त हो रहा है। इस प्रकार के विचारकों के अनुसार संस्कृति शब्द तो कल्चर का अनुवाद है, क्योंकि यह शब्द न तो मोनियर-विलियम के, अथवा आप्टे के संस्कृत कोषों में है। उनके अनुसार यदि उक्त शब्द कोष रचयिता किसी कारण वश इस संस्कृति शब्द की  चर्चा नहीं करते हैं तो वह शब्द पश्चिम की प्राचीन भाषा  लैटिन के कल्चर-कल्चुरा शब्द जिसका अर्थ उपासना और कृषि दोनों होता है, से उद्भूत माना जाना चाहिए। इस प्रकार के विचारकों ने भारत की धरोहर वेदों  का अनुशीलन करना कुछ विशेष  कुण्ठाओं के कारण  उचित नहीं समझा होगा। तथ्यतः यह शब्द यजुर्वेद के निम्न मंत्र में सार्थक स्वरूप में विद्यमान है।

‘‘सा नो प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’’(यजु.7/14) ‘‘वह विश्व द्वारा वरण की गई प्रथम संस्कृति है।’’

स्मरण रचना चाहिए जब ‘‘वैदिक गणित’’ की चर्चा सर्वप्रथम भारत में की गई तो पश्चिमोपासक भारतीय चिंतकों-वैज्ञानिकों ने इस विधा को गम्भीरता से लेना उचित नहीं समझा था। उनके मानस में तो आर्केमेडिस, पैथगोरस, रेने-दर्कात, लेवाइजर, पस्कल-कोपर्निकस और न्यूटन आदि के नाम बसे थे। स्वाभाविक था उनका भारतीय-वैज्ञानिक विधा का विरोध-विशेष कर प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक पद्धति को नगण्य करने के, उनके जन्मजात अधिकार, का प्रयोग। अधिकांश लोगों के मन में यह भ्रान्तिमय अवधारणा विद्यमान है कि विज्ञान की आधार शिला इन्हीं पश्चिमी वैज्ञानिकों ने रखी थी। इस अवधारणा के पीछे, उसकी पृष्ठभूमि में सहत्रों वर्षों से भारतीय संस्कृति एवं ज्ञान-विज्ञान के अवमूल्यन का, नष्ट करने का सुनियोजित प्रयास है। आज आवश्यकता है कि इस भ्रान्तिजन्य कुचक्र की कुक्षि से तथ्यों के नवनीत को जन-सामान्य तक संप्रेषित करने के हेतु प्रयास का प्रारम्भ करना।

प्रसन्नता का विषय है कि भारतीयता में रुचि रखने वाले चितंकों  ने, इस दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। परिणाम स्वरूप प्राचीन भारत के विज्ञान से संबद्ध अनेक तथ्य स्पष्ट होकर-प्रत्यक्ष हो रहे है। परिणाम स्वरूप प्रबुद्ध जन आपिशाल, कपिल, कणाद, आपस्तंब, बौधायन, सुश्रुत, चरक भास्कराचार्य, आर्यभट्ट वराहमिहिर आदि भारतीय मनीषी वैज्ञानिक के नामों से परिचित हो रहे हैं। आशा है कि आने वाले समय में सत्य का सूर्य उद्भासित होकर भारत की उज्जवल परम्परा के प्रणेता विज्ञान वेत्ताओं के नामों से विश्व को पुनः परिचित करा देगा। भारत की विज्ञान परम्परा को दर्शाने वाले अनेक श्लोकों की भांति निम्न श्लोक अब सहज सर्वत्र स्थापित हो चुका है-

‘‘वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुस्तथा।
चरको भास्कराचार्यो वाराहमिहिरः सुधी।।’’
‘‘नागार्जुनो भारद्वाजः आर्यभट्टों बसुर्वुधः।
ध्येयों व्यंकरटाराश्च विज्ञा रामानुजादयः।।’’

वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न भारतीय परम्परा में शोध के परिणामस्वरूप विभिन्न संस्कृति ग्रंथों में, अपने कुछ परिवर्तित स्वरूप में विद्यमान है। विभिन्न वैज्ञानिक-विषयों के प्रणेताओं में महर्षि भृगु, कवि उशना (शुक्रराचार्य) भारद्वाज, इन्द्र, वशिष्ठ, अत्रि, गर्ग, शौनक, नारद, द्रोण, चाक्रायण, धुण्डीनाथ, नंदीश, कश्यप, अगस्त, दीर्घातमस आदि का नाम अग्रगण्य है। इस ऋषियों ने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, धातुकर्म, आदि अनेक क्षेत्रों में शोध किया। इस विविध विधाओं का उल्लेख भृग-संहिता के प्रारम्भ में वर्णित है-

नानाविधानां, वस्तूनां यंत्राणां कल्पसंदा,
धातूनां साधनानां च वास्तूना शिल्प संज्ञितम।
कृर्षिजलं खनि-चेति धातुखण्डम् त्रिधाभिथम्।।
नौका-रथाग्नियानानाम्, कृति साधन मुच्यते।
वेश्म प्राकार नगररचना वास्तु संज्ञितम्।।

इन शास्त्रों में कृषि, जल खननशास्त्र, नौकाशास्त्र, रथशास्त्र अग्नियानशास्त्र, वेश्मशास्त्र, प्राकारशास्त्र, नगर रचना तथा वास्तुशास्त्र प्रमुख हैं। भारतीय विज्ञान विकास गाथा का कटुपक्ष है प्राचीन संस्कृत की पुस्तकों का धर्मान्ध आक्राताओं द्वारा, मध्य युग में नष्ट कर देना। ग्रन्थागारों-यथा नालंदा, विक्रमशिला के ग्रन्थागारों को अग्नि लगा देना और उनका कई दिनों तक जलते रहना एक सर्वविदित तथ्य है। दूसरा दुखद पक्ष है इन प्राचीन पाण्डुलिपियों, ग्रंथों  की स्मंगालिंग। एक अनुमान के अनुसार पांच लाख संस्कृत पाण्डुलिपियां पश्चिमी देशों के ग्रन्थागारों और व्यक्तिगत पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। इसी कारण सामान्य भारतीय विज्ञान अध्येयता-इन ग्रंथों के अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं।

इन उपयुक्त तथ्यों की भांति महत्त्वपूर्ण है स्वतंत्रता के उपरान्त भारत सरकार द्वारा संस्कृत के पठन-पाठन को महत्त्व न देना जो, हमारी प्राचीन गौरव गाथा के क्षरण का एक प्रमुख कारण है। शून्य के महत्त्व की चर्चा करते हुए प्रो.जे.बी. हैल्सहेड ने लिखा है ‘‘शून्य का भारतीयों द्वारा आविष्कार इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसकी जितनी प्रशंसा की जाय वह कम है।’’

शून्य के उपयोग की चर्चा यद्यपि आचार्य पिंगल कृत छंदः सूत्र जो 200 ई. पूर्व की रचना है मैं प्राप्त होता है परन्तु इसके आविष्कारक, ऋग्वैदिक ऋषि गृत्समद हैं।

दशमलव पद्धति एवं 1012 परार्ध तक की संख्याओं की चर्चा महर्षि मेघातिथि करते हैं तथा कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के एक मंत्र में यह संख्या 1019 तक जा पहुँची हैं। इसे लोक के नाम से प्रकट किया गया है। महर्षि आपिशाल जो ध्वनि शास्त्र के वैदिक प्रणेता ऋषि थे, के भाँति ही महर्षि मेघातिथि के गणित सम्बन्धी अनेक मंत्र ऋग्वेद आदि में विद्यमान हैं।

वैदिक गणित में शुल्व सूत्रों का प्रमुख स्थान है। गणित इतिहासविद् डॉ.ए.के.बाग के अनुसार, सूत्र कालीन इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट होता है, कि सूत्रों की रचना के पूर्व भी गणित के अनेक ग्रंथों की रचना हो चुकी थी। परन्तु वे सब अब कालकवलिवत होकर नष्ट हो चुके हैं। सूूत्रों में विविध वैदिक यज्ञों में बनाया जाने वाली यज्ञ वे विविध वैदिक यज्ञों में बनाया जाने वाली यज्ञ वेदिकाओं की विधिवत रचना एवं समीक्षा की गई है। शुल्व सूत्रों की रचना के लिए सात सूत्रकारों के नाम प्रमुख हैं-बौधायन, आपस्तम्ब, कात्यायन, मानव, मैत्रायण, वाराह एवं हिरण्यकेशी। इन्हीं ऋषियों को वैदिक-कालीन रेखा गणित का प्रवर्तक एवं आचार्य कहा जा सकता है। ज्यामिति में जिस प्रमेय को पाइथागोरस प्रमेय कह कर हमें पढ़ाया गया है, उसे पाइथागोरस से एक हजार वर्ष पूर्व महर्षि-बोधायन ने शुल्व सूत्र में निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया है-

‘‘दीर्घ चतुरस्यस्याक्ष्णया रज्जुः पार्श्वमानी तियक्मानी च तत्पृथग्भूते कुरुतस्य दुभयं करोति।’’
‘‘अर्थात किसी आयत की भुजाओं के वर्गों का योग उसके कर्ण के योग के बराबर होता है।’’

निश्चय ही यह प्रमेय भारतीय ज्ञान के साथ सिकन्दर के जाने के उपरान्त-यूनान और भारतीयों में संपर्क के बाद, यूनान पहुँची और कालान्तर में पाइथागोरस प्रमेय के नाम से प्रचलित की गई। इसी प्रकार प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ऋषियों को नक्षत्रों का दीर्घ-वृत्तीय पथ भी ज्ञात था। जो ऋग्वेद संहिता (6000 ई.पू.) में निम्नवत् वर्णित है-

‘‘त्रिनाभिचक्रमऽजरमनंव यत्रोमा विश्वा भुवनानि तस्थुः।’’ अर्थात ‘‘जिस दीर्घ बृत्तीय पथ पर समस्त खगोलीय पिण्ड गति करते हैं वही अजर और अनर्व है।’’

इसी तथ्य की चर्चा जर्मन वैज्ञानिक जोहासन केपलर ने, योरप में 1600 ई. में कर के ख्याति प्राप्ति की थी, जो भारतीयों को सात हजार वर्ष पूर्व से ही ज्ञात थी।


जैन गणित के आचार्यों को लघुगणक प्रणाली, लागारिथम्स, आधुनिक युग में उसके प्रवर्तक नैपियर  (550-617 ई.) से चार सौ वर्ष पूर्व, ईसा का प्रारम्भिक शताब्दी में ज्ञात थी।

गणित के प्राचीन आचार्यों में आर्यभट्ट (प्रथम), वरःमिहिर (482 ई.) जिन्होंने ईरान के सम्राट नवशेरवाँ (अनुश्रण) के निमंत्रण पर राजधानी जुन्दी शाहपुर गए थे। जहाँ पर उन्होंने एक वेधशाला का निर्माण कराया था।

ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य, श्रीधराचार्य, आर्यभट्ट (द्वितीय) और भास्कराचार्य प्रमुख विज्ञानवेत्ता थे। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से पाँच सौ वर्ष पूर्व भास्कराचार्य (द्वितीय) ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की खोज की थी। यह अतीव कष्ट एवं दुख का विषय है कि क्षात्रों को उनके द्वारा प्रतिपादित-‘‘आकृष्टि शक्तिश्च महतिपायात स्वस्थं गुरु स्वमुखं स्वशक्तया-(पृथ्वी में आकर्षण की शक्ति है, इस कारण आकाश स्थित भारी वस्तुओं को वह अपनी शक्ति से आकृष्ट करती है-खींच लेती है), सिद्धांत पढ़ाया नहीं जाता है।

प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों का गणित के प्रति अगाध प्रेम वेदांग ज्योतिष के इस श्लोक में प्रतिध्वनि होता है-

‘‘यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वेदाङग शास्त्राणां गणित मूर्द्धानि स्थितम्।।’’

गणितज्ञों के अनुसार महर्षि पाणिनि के भ्राता आचार्य पिंगल रचित ‘‘छन्दः शास्त्र’’ (500 ई.पू.) में 0 तथा 1 के द्वारा द्विआधारीय संख्या पद्धति का उपयोग किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इसी पद्धति का पुनः उपयोग करके जॉर्ज बूल ने ‘बूलियन बीजगणित’ का आविष्कार किया, जिसके आधार पर कम्प्यूटर की बाइनरी तकनीक का विकास हुआ। आचार्य पाणिनि के सूत्रों में भी कुछ सुधीजनों को गणितीय तथ्य दिखते हैं। इसी प्रकार ‘लोष्ठ-प्रस्तार’ (वरःमिहिर-पंचसिद्धान्तिका) विधि की पुनः खोज जर्मन गणितज्ञ लैबनित्स द्वारा 1666 ई. में की गई थी।

धातुकर्म और रसायन विज्ञान में प्राचीन भारतीयों की निपुणता क परिचायक दिल्ली स्थित मेहरौली का लौह स्तम्भ है तथा मथ्ययुग में समस्त एशिया में चर्चित थी भारतीय तलवार-शमशीरे-हिन्द। इतना ही नहीं, वरन् रासायनिक अभिक्रिया द्वारा विधुत उत्पादन हेतु विद्युत सेल तथा बैटरी के निर्माण का श्रेय इटली के दो वैज्ञानिकों लुइगी गैलवानी एवं आलेसान्द्रों वोल्टा को दिया जाता है। इनका कार्य काल 18वीं शती का उत्तरार्ध है। परन्तु इनके काफी समय पूर्व ऋषि अगस्त की संहिता में, रासायनिक अभिक्रिया से विद्युत उत्पादत के हेतु निम्नवत विद्युत सेल का वर्णन है।

‘‘संस्थाप्य मृण्मये पात्रे तांम्रपत्रं सुसंस्कृतम।’’
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्द्रभिः काष्ठपंसुभिः।।
दस्तालोस्टी निधातव्यः परदाच्छदिदस्ततः।
संयोगगज्जायते तेजो मित्ररुण संज्ञितम्।।

अर्थात् मिट्टी के पात्र में अच्छी तरह से स्वच्छ की हुई ताम्र पट्टिका रखकर उसके ऊपर कापर सल्फेट डालो। उसके ऊपर काष्ठ का गीला बुरादा रखकर ऊपर से जिंक पारद (पारा) का मिश्रण रखो। ताम्र एवं जिंक (जस्ता) के तारों को जोड़न से विद्युत उत्पन्न होगी।

भारत में तांत्रिकों रसायनज्ञों द्वारा पारे (पारद) से सुवर्ण-स्वर्ण बनने की चर्चा का प्रत्यक्ष साक्षी है, दिल्ली के बिरला मंदिर में लगा शिलालेख। जिस पर अंकित है ‘‘ज्येष्ठ शुक्ल 1, संवत् 1938, तद्नुसार 29 मई, 1942 को श्री पंडित कृष्ण पाल शर्मा ने अनुमान से एक तोले पारे से एक तोले से एक दो रत्ती कम सोना बनाया। उन्होंने पारे को रीठा के भीतर रखकर, उसको एक अथवा आधे रत्ती एक जड़ी-बुटियों से निर्मित सफेद भस्म में मिला कर, रीठे को मट्टी से बन्द कर दिया। इसको मट्टी से बन्द दिये में रखकर भट्ठी पर गर्म करना शुरू किया। अनुमान से 45 मिनटों के बाद सब कोयला राख में परिवर्तित हो गया, उस समय दिया को रीठा सहित पानी में डाल दिया गया। दिया से एकत्र भस्म से एक तोले से कुछ कम मात्रा में स्वर्ण प्राप्त हुआ था।’’

इस प्रस्तर लेख पर, इस क्रिया को देखकर सत्यापित करने वालों में श्री अमृत बी, ठक्कर, श्री गोस्वामी गणेशदत्त जी (लाहौर) श्री सीताराम खेमका (बिरला मिल दिल्ली के सिक्रेटरी) मुख्य इंजीनियर श्री विलसन और प्रसिद्ध साहित्यकार श्री वियोगीहरि के नाम अंकित हैं।

इसी प्रकार की क्रिया का वर्णन बिरला मंदिर, बनारस के शिलापट्ट पर अंकित है। जिसमें श्री पंडित कृष्ण पाल जी ने 18 किलो पारे से 18 किलो सोना बनाया था। इसके साक्षी थे, महात्मागांधी के सचिव महादेव देसाई, गोस्वामी गणेशदत्त एवं श्री जी. के. विरला । यह सोना 72 हजार रुपये में बेचा गया था तथा यह धनराशि सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा पंजाब को दानकर दी गयी थी। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया: 2 जून, 2008)। यह घटना प्राचीन भारतीयों के रस-सिद्धि का प्रबल प्रमाण है तथा आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यह कोल्ड फ्यूजन द्वारा सम्भव है।

अगस्त संहिता में ही विद्युत से जल के अपघटन तथा ताम्र पर रजत (चांदी) और स्वर्ण के विद्युत लेपन की विधि का भी उल्लेख है। इतावली वैज्ञानिकों के विद्युत सेल एवं ऋषि अगस्त की संहिता में वर्णित सेल में शतप्रतिशत साम्यता, यह संकेत करती है, कि यह भारतीय पाण्डुलिपि के इटली में, संभवतः मंगोलो के माध्यम से पहुँचने के परिणाम का फल है। प्रो. रघुवीर के अनुसार (चिन्तन-सृजन, जुलाई-सितम्बर 2008पृ.15)’’ पंद्रहवीं शती के मध्य में हजारों मंगोल इटली में कार्यरत थे। ये लोग अपना प्रार्थना चक्र घुमाने के लिए गर्म भाप की धौंकनियों का प्रयोग करते थे। इन्हीं धौंकनियों ने विकसित होकर जहाजों के भाप से चलने वाले पेंचदार प्रणोदकों को प्रशस्त किया।’’

अब आप महाभारत में वर्णित यंत्र-चालित नौकाओं की सत्यता पर क्या विश्वास नहीं करेंगे?

भारतीय वांग्मय विमानों की चर्चा से भरा हुआ है। पश्चिमोपासक गण इसे मात्र कल्पना मानते थे। परन्तु राइट बधुओं के विमान (आधुनिक) के आविष्कार के लगभग दस वर्ष पूर्व सन् 1865ई. में श्री शिवकर बापूजी तलपदे ने ऋग्वेद वर्णित मरुत सखा तथा बाल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक-विमान’ के विवरणों के आधार पर भारतीयों विमान निर्माण के प्राचीन शास्त्रों के विवेचन के आधार पर वायुयान का एक माडल तैयार किया है। इस आधुनिक मरुत सखा का प्रदर्शन उन्होंने 1865 ई. में मुम्बई (बम्बई) के चौपाटी के मैदान में तत्कालीन बड़ौदा नरेश महाराजा सर सयाजी राव गायकवाड़, श्री लाल जी नारायण और बम्बई के अन्य गण्यमान नागरिकों के सम्मुख किया था। यह विमान बिना किसी चालक के 15 फिट की ऊँचाई तक उड़ा था और पुनः स्वतः धरती पर वापस आ गया था। इस विमान में कोई चालक नहीं था तथा इसमें नीचे उतरने का यंत्र लगाया गया था।

यह तथ्य स्पष्ट रूप से इंगित करता है, कि विमान-विद्या से सम्बद्ध आज अनेक पाण्डुलिपियों के विविध कारणों से, अनुपलब्ध होेते हुए भी विमान-निर्माण में निपुण प्राचीन भारतीय शिल्पियों, विमान विद्या विशारदों का निर्माण कौशल असंदिग्ध है।

इन्हीं विमानों से सम्बद्ध अनेक प्रच्छन्न विज्ञान कथाएँ, वैदिक एवं पौराणिक साहित्या साहित्य में बिखरी पड़ी हैं। हम  सभी अंतरिक्ष में गतिमान त्रिपुर-नगर का, मनशक्ति चालित विमान-सौभ की, पुष्पक आदि विमान कथाओं से भली भांति परिचित हैं।

भारत का आयुर्विज्ञान कितना विकसित था, शल्य शाल्यक-सर्जरी कितनी विकसित थी, इसके तथ्य के प्रत्यक्ष साक्षी महर्षि चरक प्रणीत ‘चरक-संहिता’ एवं महर्षि सुश्रुत रचित ‘सुश्रुत संहिता’ नामक ग्रन्थ हैं। इसी आयुर्वेद के प्रभावों के विवरण हमें अश्विद्वय, राजा ययाति एवं महर्षि च्यवन की कथाओं में प्राप्त होते हैं, तथा विविध प्रकार की सर्जरी के साथ महर्षि सुश्रुत वर्णित ‘क्षार-सूत्र’ पद्धति अर्श (बवासीर) के निदान में आज भी व्यवहृत हो रही है। इसी शल्प-शालक्य विधा से सम्बन्धित है गणेश एवं ऋषि दध्यड्ग की कथाएँ, जिनसे हम भली-भाँति परिचित हैं।

शरीर में रक्त संचार का श्रेय अंग्रेज विज्ञानी विलियम हार्वे को दिया जाता हैं, जिन्होंने 1628ई. में हृदय गति एवं रक्त संचार सम्बन्धी अपनी पुस्तक प्रकाशित की थी। जब कि उनसे दो हजार वर्ष से भी पहले सुश्रुत रचित सुश्रुत संहिता (600ई.पू.) के अध्याय 14वें इस वैज्ञानिक तथ्य का स्पष्ट वर्णन है-

आहारस्य सम्यक् परितस्य यस्तेजो भूतसारा परमसूक्ष्म स रसः इत्युच्चते। तस्य हृदय स्थानं स हृदयात् चतुर्विशतिधर्मनरिनु  प्रवीणश्च.....कृत्सनं शरीरमहरहः तर्पयति वर्धयति धारयति यपायति च अद्रष्टहेतुकेन कर्मणा।।’’

अर्थात् ‘‘सुपचित आहार से जो ऊर्जा शरीर को प्राप्त होती है उसे रस कहते है। उसका स्थान हृदय है, जहाँ से चौबीस धमनियों (दस ऊर्ध्वगामी, उस अधोगामी और चार क्षैतिज) में प्रवेश करते हुए यह संपूर्ण शरीर का दिनानुदिन तपर्ण, वर्धन, धारण तथा यापन करता है।

चरक और सुश्रुत ने मात्र रक्त संचार का वर्णन ही नहीं किया है वरन् रक्त के माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों को पोषण होने की भी चर्चा की गई है।

भारतीय वैद्यों की निपुणता, रोग-निदान में विख्यात थी। इसका प्रमाण 18वीं शताब्दी में कलकत्ता में फैली चेचक-महामारी के निदान हेतु वैद्यों द्वारा चेचक के दानों के पानी को प्रभावित रोगी के अंग में चीरा लगाकर प्रविष्ट करने की पद्धति की चर्चा अंग्रेजों द्वारा इग्लैंड पहुँची थी। इसी तथ्य का कालान्तर, में अंग्रेज चिकित्सक जेनर ने, उपयोग कर वैक्सीनेशन पद्धति को प्रचलित किया।

वैज्ञानिक उपलब्धियों की भांति की प्राचीन भारतीय मनीषियों की कथोपकथन की निपुणता का परिणाम है कि विज्ञान-ज्ञान युक्त रंगों में रंगी अनेक कथाएँ, जो भारतीय वांग्मय में यत्र-तत्र विद्यमान हैं।

हम आप सभी भागवत् पुराण में वर्णित राजा उत्तानपाद एवं ध्रुव की कथा से परिचित है। भारतीय ज्योतिष के चरमोत्कर्ष के समय से नक्षत्रों के मानवीकरण के प्रयास द्वारा ज्योतिष के ज्ञान को, जन-सामान्य तक, संप्रषित करने हेतु इन कथाओं की रचना की गई थी।

भगवत्-पुराण में वर्णित है कि राजा ध्रुव ने छत्तीस हजार वर्षों तक राज्य किया था। ज्योतिष का प्रत्येक क्षात्र यह जानता है कि ध्रुव नक्षत्र एक राशि पर तीन हजार वर्ष तक रहा है। इस प्रकार बारह राशियों पर वह छत्तीस हजार वर्षों तक रहता है, यही इस ध्रुव नक्षत्र का राज्य काल होता है। ध्रुव की भूमि नाम्नी पत्नी से दो पुत्र ‘वत्सर’ एवं ‘कल्प’ हुये थे। हम इस तथ्य से परिचित हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक वर्ष में पूरा करती है-यह अवधि वत्सर कहलाती है। इसी शब्द में संवत् शब्द संलिप्त होकर संवत्सर बन गया। सूर्य ब्रह्माण्ड के केन्द्र की परिक्रमा एक कल्प में करता है-यही ‘कल्प’ भूमि का दूसरा पुत्र है।

इसी प्रकार की कथा राजा त्रिशंकु की है, जो निश्चित रूप से भास्कराचार्य (द्वितीय) के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के संज्ञान के उपरान्त रची गयी होगी।

आज के अनुमानतः दस हजार वर्ष पूर्व पृथ्वी लघु  हिमयुग का दंश झेल रही थी। समय के साथ वातावरण में परिवर्तन हुआ, धरा का तापक्रम बढ़ा, परन्तु सरितायें हिमाच्छादित रहीं। इसी को, जल को हिम से मुक्त कराने की कथा है-इन्द्र द्वारा वृत्त का वध। यह अलंकारित कथा महाभारत के समय तक कथोपकथन के प्रवाह में, ढ़लकर, परिवर्तित कलेवर धारण कर लोकरंजन कर रही है। उपर्युक्त सभी कथाएँ, जो प्राचीन काल में वैज्ञानिक तथ्यों को अपने आँचल में छिपाये, लोक रंजन का माध्यम थीं तथ्यतः प्रच्छन्न विज्ञान कथाएँ हैं। इनमें विगत के विगत के घटना क्रमों की चर्चा तो है, परन्तु आगत के घटनाक्रम पर, उससे जुड़े विविध संदर्भों पर चर्चा नहीं है। मानवीय संवेदनाओं, अभिव्यक्तियों, मानवीय संवेगों, संकल्पों को, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्मिलत करती, कल्पना, रोमांच एवं रहस्य के आवरण से अपनी शब्द काया को अवगुण्ठित किये, भविष्यमुखी कथा-विज्ञान कथा है।

ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है। यह विश्व की धरोहर है। इसके अनेक मंडलों में प्रथम-मंडल सबसे अधिक प्राचीन है। इस मंडल में मानवीय कल्पना के आयामों का दर्शन होता है तथा वहीं पर इस मंडल के अलंकारित मंत्रों में विज्ञान एवं प्राद्योगिकी के विकास की भी झलक विद्यमान है।

प्रारम्भ में मानव सरिताओं के जल पर आश्रित था। कालान्तर में मानवीय विस्तार के परिणाम स्वरूप वह सरिताओं से दूर कृषि आदि कार्यों के संपादन हेतु बसने लगा। सरिताओं से जल लाना कठिन था, इस कारण उसने धरती का खनन कर, उपलब्ध जल से अपना कार्य चलाना प्रारम्भ किया होगा।

इस प्रकार के खनित कूप वर्षा के आने पर किनारे पर एकत्र खुदी हुई मिट्टी से भर जाते रहे होगें। इस कारण सुदृढ़ कूप के निर्माण की आवश्यकताओं ने तथा यज्ञ-वेदिका निर्माण की आवश्यकता ने उसे मिट्टी की पकी हुई ईटों को बनाने के लिए प्रेरित किया होगा।

ईंटों को पकाने की तकनीक मानव द्वारा पहिया अथवा चक्र बनाने की तकनीक से कम महत्वपूर्ण नहीं थी। पकी हुई ईंटों के प्रयोग ने यज्ञ हेतु निर्माण की जाने वाली वेदिकाओं को स्थायित्व ही नहीं प्रदान किया वरन कूपों को सुदृढ़ता प्रदान  करने का प्रारम्भ किया।

स्वाभाविक है कि गहरे और सुदृढ़ कूप के निर्माण कार्य में तकनीकी समस्या शिल्पियों के सम्मुख आई  होगी। इस की झंकार निम्न अलंकारिक मंत्र में स्पष्ट सुनायी देती है-

त्रितः कूपे वहितो देवान्हवात ऊतये।
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्न हूरणादुरू वित्तमें अस्य रोदसी।।
-ऋग्वेदः मं. 1 सू. 105 मंत्र. 11) त्रित नामक कूप निर्माता शिल्पी निर्माण काल में गोल दिख रहे कूप में, कुएँ में फँस गया। उसने अपने उद्धार के लिए देवगुरु बृहस्पति का आह्वान किया, पुकारा।

गणितज्ञ देवगुरु बृहस्पति ने कूप का पूर्णरूपेण गोल न होना जानकर, उसकी दीवारों को पूर्ण रूपेण लम्बवत करने, कूप को गोल करने का संकेत देकर, शिल्पी त्रित का उद्धार किया। तथ्यतः यदि कूप की परिधि एवं व्यास का अनुपात 22/7 से न्यूनाधिक होगा। तो वृत अशुद्ध होगा तथा निर्माण पूर्ण रूपेण स्थिर न रह सकेगा, गिर जायेगा, यह यह सर्वविदित गणितीय तथ्य है।

यह छोटी सी, महत्त्वपूर्ण कथा, भविष्य में कूप निर्माण की तकनीक को ही नहीं बताती, वरन इस कथा से स्पष्ट होता है कि भविष्य में कूपों के निर्माण में इस प्रकार की त्रुटि संशोधन कर, शिल्पियों ने पुराकाल में सुदृढ़ कूपों के निर्माण का शंखनाद किया होगा। इतना ही नहीं यह भविष्यमुखी-भारत की प्रथम विज्ञान कथा है, जो पाई के मान को वैदिक कालीन गणितज्ञों को ज्ञात होने का भी संकेत देती है।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013



बच्चे की पहली शिक्षक उसकी मां होती है। स्वामी विवेकानंद तीस वर्ष के युवा थे तो उन्होंने मां से धर्म प्रचार के लिए विदेश जाने की अनुमति मांगी। मां ने रसोईघर में काम करते हुए कहा, ‘‘जरा वह चाकू दे दो।’’ युवा संन्यासी चाकू के लोहे का फल अपने हाथों में पकड़ कर लकड़ी का मूठ मां की तरफ कर देता है। मां का आशीर्वाद गूंजता है, ‘‘तुम्हारी यात्रा शुभ हो। तुम्हें चाकू किस तरह उठाकर दिया जाता है, इसकी तमीज तो है, तुमसे  किसी का अहित नहीं होगा।’’

ऐसी महान विदुषी नारी के पुत्र थे स्वामी विवेकानंद परंतु आज की मां इतनी नि:सहाय कैसे हो गई। युवा वर्ग में ऊर्जा के संचार का प्रारंभ घर- परिवार से करना होगा तभी हमारे समाज, राष्ट्र का उत्थान हो सकेगा। आज हम हृदय से ज्यादा महत्व अपने मस्तिष्क को देते हैं और जो व्यक्ति अपने हृदय की सुनता या कहता है तो उसे हम ‘यू आर इमोशनल पर्सन’ कह कर उसका उपहास करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने हृदय की महत्ता बताते हुए कहा था, ‘‘मस्तिष्क एवं हृदय दोनों की हमें आवश्यकता है। अवश्य हृदय बहुत श्रेष्ठ है, हृदय के माध्यम से जीवन की महान् अन्त:प्रेरणाएं आती हैं। मस्तिष्कवान पर हृदयशून्य होने की अपेक्षा मैं तो यह सौ बार पसंद करूंगा कि मेरे जरा भी मस्तिष्क न हो पर थोड़ा-सा हृदय हो। जिसका हृदय है उसी का जीवन संभव है, उसी की उन्नति संभव है ङ्क्षकतु जिसके तनिक भी हृदय नहीं है केवल मस्तिष्क है, वह सूखकर मर जाता है।’’

स्वामी विवेकानंद ने ‘‘उठो! जागो!’’ का आह्वान किया था। वह शक्ति के उपासक थे। उनका विश्वास था कि मातृशक्ति जीवन को संचालित कर रही है। वह काली को प्रलयकारिणी शक्ति मानते थे, जो दुख और संकट का नाश कर सकती है। विवेकानंद जातिवाद के विरोधी थे। अपने एक मुस्लिम नाविक की चार वर्ष की कन्या का, वह उमा रूप में पूजन करते थे। महापुरुषों की यही लाक्षणिक पहचान होती है। स्वामी जी हिंदुस्तान के एकमात्र धार्मिक वांड्मय संन्यासी थे जिन्होंने चमत्कारों का सहारा कभी नहीं लिया।
विवेकानंद हर भारतीय को धार्मिक, आध्यात्मिक शिक्षा के साथ-साथ वीर-धीर और बहादुर बनाना चाहते थे। वह भारत मां के सच्चे उपासक थे और हर भारतीय को इसी रूप में देखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने ङ्क्षहदुस्तानियों को आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘हे वीर! निर्भीक बनो, साहस धारण करो! इस बात पर गर्व करो  कि हम भारतीय हैं और गर्व के साथ कहो कि मैं भारतीय हूं और हर भारतीय मेरा भाई है।’’

ऐसे वीर-धीर महान् संन्यासी, जिसे अपनी भारतीयता पर गर्व था वह ज्ञान का सूर्य महासमाधि धारण कर विलीन हो गया। वह शुक्रवार का दिन था, चौथी जुलाई 1902 ईस्वी। स्वामी जी की आयु तब 39 वर्ष 5 माह 22 दिन थी।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

दानवीर कर्ण

महाभारत का युद्ध चल रहा था। सूर्यास्त के बाद सभी अपने-अपने शिविरों में थे। उस दिन अर्जुन ने कर्ण को पराजित कर दिया था। इसलिए वह अहंकार में चूर थे। वह अपनी वीरता की डींगें हाँकते हुए कर्ण का तिरस्कार करने लगे।

यह देखकर श्रीकृष्ण बोले-“पार्थ! कर्ण सूर्यपुत्र है। उसके कवच और कुंडल दान में प्राप्त करने के बाद ही तुम उस पर विजय पा सके हो अन्यथा उसे पराजित करना किसी के वश में नहीं था। वीर होने के साथ ही वह दानवीर भी हैं। उसके समान दानवीर आज तक नहीं हुआ।”

कर्ण की दानवीरता की बात सुनकर अर्जुन तिलमिला उठे और तर्क देकर उसकी उपेक्षा करने लगा। श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा समझ गए थे। वे शांत स्वर में बोले-“पार्थ! कर्ण रणक्षेत्र में घायल पड़ा है। तुम चाहो तो उसकी दानवीरता की परीक्षा ले सकते हो।” अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मान ली। दोनों ब्राह्मण के रूप में उसके पास पहुँचे।

घायल होने के बाद भी कर्ण ने ब्राह्मणों को प्रणाम किया और वहाँ आने का उद्देश्य पूछा। श्रीकृष्ण बोले-“राजन! आपकी जय हो। हम यहाँ भिक्षा लेने आए हैं। कृपया हमारी इच्छा पूर्ण करें।”

कर्ण थोड़ा लज्जित होकर बोला-“ब्राह्मण देव! मैं रणक्षेत्र में घायल पड़ा हूँ। मेरे सभी सैनिक मारे जा चुके हैं। मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रही है। इस अवस्था में भला मैं आपको क्या दे सकता हूँ?”
“राजन! इसका अर्थ यह हुआ कि हम खाली हाथ ही लौट जाएँ? ठीक है राजन! यदि आप यही चाहते हैं तो हम लौट जाते हैं। किंतु इससे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। संसार आपको धर्मविहीन राजा के रूप में याद रखेगा।” यह कहते हुए वे लौटने लगे। तभी कर्ण बोला-“ठहरिए ब्राह्मणदेव! मुझे यश-कीर्ति की इच्छा नहीं है, लेकिन मैं अपने धर्म से विमुख होकर मरना नहीं चाहता। इसलिए मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा।

कर्ण के दो दाँत सोने के थे। उन्होंने निकट पड़े पत्थर से उन्हें तोड़ा और बोले-“ब्राह्मण देव! मैंने सर्वदा स्वर्ण(सोने) का ही दान किया है। इसलिए आप इन स्वर्णयुक्त दाँतों को स्वीकार करें।”

श्रीकृष्ण दान अस्वीकार करते हुए बोले-“राजन! इन दाँतों पर रक्त लगा है और आपने इन्हें मुख से निकाला है। इसलिए यह स्वर्ण जूठा है। हम जूठा स्वर्ण स्वीकार नहीं करेंगे।” तब कर्ण घिसटते हुए अपने धनुष तक गए और उस पर बाण चढ़ाकर गंगा का स्मरण किया। तत्पश्चात बाण भूमि पर मारा। भूमि पर बाण लगते ही वहाँ से गंगा की तेज जल धारा बह निकली। कर्ण ने उसमें दाँतों को धोया और उन्हें देते हुए कहा-“ब्राह्मणों! अब यह स्वर्ण शुद्ध है। कृपया इसे ग्रहण करें।

तभी कर्ण पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। विस्मित कर्ण भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए बोला-“भगवन! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। मेरे सभी पाप नष्ट हो गए प्रभु! आप भक्तों का कल्याण करने वाले हैं। मुझ पर भी कृपा करें।”

तब श्रीकृष्ण उसे आशीर्वाद देते हुए बोले-“कर्ण! जब तक यह सूर्य, चन्द्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता का गुणगान तीनों लोकों में किया जाएगा। संसार में तुम्हारे समान महान दानवीर न तो हुआ है और न कभी होगा। तुम्हारी यह बाण गंगा युगों-युगों तक तुम्हारे गुणगान करती रहेगी। अब तुम मोक्ष प्राप्त करोगे।” कर्ण की दानवीरता और धर्मपरायणता देखकर अर्जुन भी उसके समक्ष नतमस्तक हो गया।

धर्म का सार


यह उन दिनों की बात है, जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका में थे। वहां कई महत्वपूर्ण जगहों पर उन्होंने व्याख्यान दिए। उनके व्याख्यानों का वहां जबर्दस्त असर हुआ। लोग स्वामी जी को सुनने और उनसे धर्म के विषय में अधिक अधिक से जानने को उत्सुक हो उठे। उनके धर्म संबंधी विचारों से प्रभावित होकर एक दिन एक अमेरिकी प्रोफेसर उनके पास पहुंचे। उन्होंने स्वामी जी को प्रणाम कर कहा, ‘स्वामी जी, आप मुझे अपने हिंदू धर्म में दीक्षित करने की कृपा करें।’

इस पर स्वामी जी बोले, ‘मैं यहां धर्म प्रचार के लिए आया हूं न कि धर्म परिवर्तन के लिए। मैं अमेरिकी धर्म-प्रचारकों को यह संदेश देने आया हूं कि वे धर्म परिवर्तन के अभियान को बंद कर प्रत्येक धर्म के लोगों को बेहतर इंसान बनाने का प्रयास करें। यही धर्म की सार्थकता है। यही सभी धर्मों का मकसद भी है। हिंदू संस्कृति विश्व बंधुत्व का संदेश देती है, मानवता को सबसे बड़ा धर्म मानती है।’ वह प्रोफेसर उनकी बातों से अभिभूत हो गए और बोले, ‘स्वामी जी, कृपया इस बारे में और विस्तार से कहिए।’

प्रोफेसर की यह बात सुनकर स्वामी जी ने कहा, ‘महाशय, इस पृथ्वी पर सबसे पहले मानव का आगमन हुआ था। उस समय कहीं कोई धर्म, जाति या भाषा न थी। मानव ने अपनी सुविधानुसार अपनी-अपनी भाषाओं, धर्म तथा जाति का निर्माण किया और अपने मुख्य उद्देश्य से भटक गया। यही कारण है कि समाज में तरह-तरह की विसंगतियां आ गई हैं। लोग आपस में विभाजित नजर आते हैं। इसलिए मैं तुम्हें यह कहना चाहता हूं कि तुम अपना धर्म पालन करते हुए अच्छे ईसाई बनो। हर धर्म का सार मानवता के गुणों को विकसित करने में है इसलिए तुम भारत के ऋषियों-मुनियों के शाश्वत संदेशों का लाभ उठाओ और उन्हें अपने जीवन में उतारो।’ वह प्रोफेसर मंत्रमुग्ध यह सब सुन रहे थे। स्वामी जी के प्रति उनकी आस्था और बढ़ गई।

सुविचार Thoughts

The powers of the mind are like the rays of the sun when they are concentrated they illumine.. - Swami Vivekananda

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

स्वामी विवेकानंद प्रश्नमंजुषा


सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

दृणनिश्चयी, महान देशभक्त, धर्मात्मा, राष्ट्र निर्माता तथा कुशल प्रशासक शिवाजी का व्यक्तित्व बहुमुखी था। माँ जीजाबाई के प्रति उनकी श्रद्धा ओर आज्ञाकारिता उन्हे एक आदर्श सुपुत्र सिद्ध करती है। शिवाजी का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति उनसे प्रभावित हो जाता था। साहस, शौर्य तथा तीव्र बुद्धी के धनि शिवाजी का जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शिवाजी की जन्मतीथि के विषय में सभी विद्वान एक मत नही हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार 20 अप्रैल 1627 है।
शिवाजी की शिक्षा-दिक्षा माता जीजाबाई के संरक्षण में हुई थी। माता जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ती की महिला थीं, उनकी इस प्रवृत्ति का गहरा प्रभाव शिवाजी पर भी था। शिवाजी की प्रतिभा को निखारने में दादाजी कोंणदेव का भी विषेश योगदान था। उन्होने शिवाजी को सैनिक एवं प्रशासकीय दोनो प्रकार की शिक्षा दी थी। शिवाजी में उच्चकोटी की हिन्दुत्व की भावना उत्पन्न करने का श्रेय माता जीजाबाई को एवं दादा कोंणदेव को जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल पूना में हुआ था। में हुआ था ।
शिवाजी की बुद्धी बङी ही व्यवहारिक थी, वे तात्कालिक सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति बहुत सजग थे। हिन्दु धर्म, गौ एवं ब्राह्मणों की रक्षा करना उनका उद्देश्य था। शिवाजी हिन्दु धर्म के रक्षक के रूप में मैदान में उतरे और मुग़ल शाशकों  के विरुद्ध उन्होने युद्ध की घोषणां कर दी। वे मुग़ल शासकों के अत्याचारों से भली-भाँति परचित थे इसलिए उनके अधीन नही रहना चाहते थे। उन्होने मावल प्रदेश के युवकों में देशप्रेम की भावना का संचार कर कुशल तथा वीर सैनिकों का एक दल बनाया। शिवाजी अपने वीर तथा देशभक्त सैनिकों के सहयोग से जावली, रोहिङा, जुन्नार, कोंकण, कल्याणीं आदि उनेक प्रदेशों पर अधिकार स्थापित करने में कामयाब रहे। प्रतापगढ तथा रायगढ दुर्ग जीतने के बाद उन्होने रायगढ को मराठा राज्य की राजधानी बनाया था।
शिवाजी पर महाराष्ट्र के लोकप्रिय संत रामदास एवं तुकाराम का भी प्रभाव था। संत रामदास शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु थे, उन्होने ही शिवाजी को देश-प्रेम और देशोध्दार के लिये प्रेरित किया था।
शिवाजी की बढती शक्ती बीजापुर के लिये चिन्ता का विषय थी। आदिलशाह की विधवा बेगम ने अफजल खाँ को शिवाजी के विरुद्ध युद्ध के लिये भेजा था। कुछ परिस्थिती वश दोनो खुल्लम- खुल्ला युद्ध नही कर सकते थे। अतः दोनो पक्षों ने समझौता करना उचित समझा। 10 नवम्बर 1659 को भेंट का दिन तय हुआ। शिवाजी जैसे ही अफजल खाँ के गले मिले, अफजल खाँ ने शिवाजी पर वार कर दिया। शिवाजी को उसकी मंशा पर पहले से ही शक था, वो पूरी तैयारी से गये थे। शिवाजी ने अपना बगनखा अफजल खाँ के पेट में घुसेङ दिया । अफजल खाँ की मृत्यु के पश्चात बीजापुर पर शिवाजी का अधिकार हो गया। इस विजय के उपलक्ष्य में शिवाजी, प्रतापगढ में एक मंदिर का निर्माण करवाया जिसमें माँ भवानी की प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया ।
शिवाजी एक कुशल योद्धा थे। उनकी सैन्य प्रतिभा ने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली शासक को भी विचलित कर दिया था। शिवाजी की गोरिल्ला रणनीति( छापामार रणनीति) जग प्रसिद्ध है। अफजल खाँ की हत्या, शाइस्ता खाँ पर सफल हमला और औरंगजेब जैसे चीते की मांद से भाग आना, उनकी इसी प्रतिभा और विलक्षण बुद्धी का परिचायक है। शिवाजी एक सफल कूटनीतिज्ञ थे। इसी विषेशता के बल पर वे अपने शत्रुओं को कभी एक होने नही दिये। औरंगजेब से उनकी मुलाकात आगरा में हुई थी जहाँ उन्हे और उनके पुत्र को गिरफ्तार कर लिया गया था। परन्तु शिवाजी अपनी कुशाग्र बुद्धी के बल पर फलों की टोकरियों में छुपकर भाग निकले थे। मुगल-मराठा सम्बन्धों में यह एक प्रभावशाली घटना थी।
बीस वर्ष तक लगातार अपने साहस, शौर्य और रण-कुशलता द्वारा शिवाजी ने अपने पिता की छोटी सी जागीर को एक स्वतंत्र तथा शक्तीशाली राज्य के रूप में स्थापित कर लिया था। 6 जून, 1674 को शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ था। शिवाजी जनता की सेवा को ही अपना धर्म मानते थे। उन्होने अपने प्रशासन में सभी वर्गों और सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिये समान अवसर प्रदान किये। कई इतिहासकरों के अनुसार शिवाजी केवल निर्भिक सैनिक तथा सफल विजेता ही न थे, वरन अपनी प्रजा के प्रबुद्धशील शासक भी थे। शिवाजी के मंत्रीपरिषद् में आठ मंत्री थे, जिन्हे अष्ट-प्रधान कहते हैं।
छत्रपति शिवाजी के राष्ट्र का ध्वज केशरिया है। इस रंग से संबन्धित एक किस्सा है। एक बार शिवाजी के गुरू, समर्थ गुरू रामदास भिक्षा माँग रहे थे, तभी शिवाजी ने उन्हे देखा उनको बहुत खराब लगा।
शिवाजी, गुरु के चरणों में बैठ कर आग्रह करने लगे कि आप ये समस्त राज्य ले लिजीये एवं भिक्षा न माँगे। शिवाजी की भक्ती देख समर्थ गुरु रामदास अत्यधिक प्रसन्न हुए और शिवाजी को समझाते हुए बोले कि मैं राष्ट्र के बंधन में नही बंध सकता किन्तु तुम्हारे आग्रह को स्वीकार करता हुँ और तुम्हे ये आदेश देता हुँ कि आज से मेरा ये राज्य तुम कुशलता पूर्वक संचालित करो। ऐसा कहते हुए समर्थ गुरु रामदास अपने दुप्पट्टे का एक टुकङा फाङ कर शिवाजी को दिये तथा बोले कि वस्त्र का ये टुकङा सदैव मेरे प्रतीक के रूप में तुम्हारे साथ तुम्हारे राष्ट्र ध्वज के रूप में रहेगा जो तुम्हे मेरे पास होने का बोध कराता रहेगा।
कुशल एवं वीर शासक छत्रपति शिवाजी का अंतिम समय बङे कष्ट एवं मानसिक वेदना में व्यतीत हुआ। घरेलू उलझने एवं समस्यायें उनके दुःख का कारण थीं। बङे पुत्र सम्भाजी के व्यवहार से वे अत्यधिक चिन्तित थे। तेज ज्वर के प्रकोप से 3 अप्रैल 1680 को शिवाजी का स्वर्गवास हो गया।
शिवाजी केवल मराठा राष्ट्र के निर्माता ही नही थे, अपितु मध्ययुग के सर्वश्रेष्ठ मौलिक प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ती थे। महाराष्ट्र की विभिन्न जातियों के संर्धष को समाप्त कर उनको एक सूत्र में बाँधने का श्रेय शिवाजी को ही है। इतिहास में शिवाजी का नाम, हिन्दु रक्षक के रूप में सदैव सभी के मानस पटल पर विद्यमान रहेगा। भारतीय इतिहासकारों के शब्दों के साथ कलम को विराम देते हैं।
डॉ. रमेश चन्द्र मजुमदार के अनुसार- “भारतीय इतिहास के रंगमंच पर शिवाजी का अभिनय केवल एक कुशल सेनानायक एवं विजेता का न था, वह एक उच्च श्रेणीं के शासक भी थे।“
सर जदुनाथ सरकार के अनुसार- “शिवाजी भारत के अन्तिम हिन्दु राष्ट्र निर्माता थे, जिन्होने हिन्दुओं के मस्तक को एक बार पुनः उठाया।“ 
आभार:-
अनिता शर्मा
Indore , E-mail ID:  voiceforblind@gmail.com

Rare Photo's Of Swami Vivekanand,













रविवार, 17 फ़रवरी 2013

"स्वामी विवेकानंद युवा विचार मंच" आयोजित "स्वामी विवेकानंद" प्रश्नमंजुषा

सुस्वागतम सुस्वागतम... "स्वामी विवेकानंद युवा विचार मंच" पर आप सभी युवा का स्वागत... हमे ख़ुशी है आप हमसे जुडे है.. हम "स्वामी विवेकानंद युवा विचार मंच" के तहत दि.१९/०२/२०१३ "श्री. शिवाजी महाराज" जन्मदिन के शुभ अवसर पर "स्वामी विवेकानंद" प्रश्नमंजुषा का शुभारंभ करने जा रहे है... शुरुवात में हम आपसे हर हफ्ते १० सवाल पूछेंगे. जिसमे आपको उन सवालोकां सही जवाब देना होगा.. यह सवाल "स्वामी विवेकानंद" जी से जुडे होंगे. सभी सवालोके सही जवाब देने वाले युवा को हम विशेष उपहार देंगे. हर हफ्ते मात्र "एक" हि विजेता घोषित किया जायेगा. इस प्रतियोगिता में शामिल होने के लिये कोई शुल्क नही है. हमारा प्रयास है जनजन तक स्वामीजी के विचारोको सह्जतासे प्रचारित करना.

#दि. १९/०२/२०१३ तक "Swami Vivekananda, The Great Spiritual Guru of India” पर अधिक जानकारी दी जायेगी.

यहां Registration करे...
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